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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ विकृतिविज्ञान होना पड़ता है। अग्नि को मन्द करने का कार्य आहार का विषमतया ग्रहण, कृमि आदि अनेक कारण हैं जिन्हें हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं। ___ऊपर हमने अतीसार की सम्प्राप्ति संक्षेप में परन्तु स्पष्टतः लिख दी है। इसकी आधुनिक विज्ञान से कहाँ तक सङ्गति बैठती है यह बतलाना यहाँ अनावश्यक है। __ अतीसार के पूर्वरूप के सम्बन्ध में सुश्रुत का निम्न श्लोक प्रसिद्ध है : हृन्नाभिपायूदरकुक्षितोदगात्रावसादानिलसन्निरोधाः । विट्सङ्गआध्मानमथा विपाको भविष्यतस्तस्य पुरःसराणि ।। इसका अभिप्राय यह है कि अतीसार होने के पहले हृदय, नाभि, गुद, उदर, कुक्षि इन सब स्थानों में या कुछ में तोद उत्पन्न हो जाता है। शरीर में अवसाद आ जाता है और वायु तथा मल की रुकावट के साथ आध्मान और अविपाक हो जाता है। इस प्रकार १० प्राग्रूप पाये जा सकते हैं। ये लक्षण किसी अतीसार में अधिक और किसी में कम होते हैं। ___ तोदो हृद्गुदकोठेषु गात्रसादो मलग्रहः । आध्मानमविपाकश्च लक्षणं तस्य भाविनः ॥ के द्वारा अष्टांगहृदयकार ने भी इन्हीं की पुष्टि की है। अब हम प्रत्येक अतीसार के सम्बन्ध में कुछ वर्णन करते हैं: (१) वातज अतीसार अथावरकालं वातलस्य वातातपव्यायामातिमात्रनिषेवणो रूक्षाल्पप्रमिताशिनस्तीक्ष्णमद्यव्यवायनित्यस्योदावर्तयतश्च वेगान् वायुः प्रकोपमाद्यते पक्ता चोपहन्यते स वायुः कुपितोऽग्नावुपहते मूत्र स्वेदौ पुरीषाशयमुपहृत्य ताभ्यां पुरीषं द्रवीकृत्य अतीसाराय प्रकल्पते । (चरक) अवरकाल में अर्थात् पृषध्र के गोमेध यज्ञ के पश्चात् के काल में वातलव्यक्ति वायु, धूप, व्यायामादि का अत्यधिक सेवन करने पर या रूक्ष पदार्थ सेवन करने पर, अल्पमात्रा में भोजन करने पर या तीक्ष्ण मद्य पीने पर, बहुत मैथुन करने पर अथवा वेगों के रोकने से वायु प्रकुपित हो जाता है। प्रकुपित होकर वह पक्ता अर्थात् जाठराग्नि का अपहनन कर देता है । वह वायु कुपित होकर अग्नि को नष्ट करके स्वेद तथा मूत्र अर्थात् जलीयांश को मलाशय में लाकर उससे मल को पतला बनाकर अतीसार की उत्पत्ति कर देता है। वातज अतीसार के लक्षणों के सम्बन्ध में निम्न साहित्य मिलता है १. तस्य रूपाणि-विज्जलमामविप्लुतमवसादि रूक्षं द्रवं सशूलमामगन्धं सशब्दमीषच्छब्दं वा विबद्धमूत्रवातमतिसार्यते पुरीषं वायुश्चान्तःकोष्ठे सशब्दशूलस्तिर्यक् चरति विबद्ध इत्यामातिसारीवातात् , पक्वं विबद्धमल्पाल्पं सशब्दं सशूलफेनपिच्छापरिकर्तिकं हृष्टरोमाविनिःश्वसन् शुष्कमुखः कट्यूरुत्रिकजानुपृष्ठपार्श्वशूली भ्रष्टगुदो मुहुर्मुहुर्विग्रथितमुपवेश्यते पुरीषं वातात् , तमाहुरनुग्रथितमित्येके, वातानुग्रथितवर्चस्त्वात् । ( चरक) २. शूलाविष्टः सक्तमूत्रोऽन्त्रकूजी स्रस्तापानः सन्नकट्यूरुजङ्घः । व_मुञ्चत्यल्पमल्पं सफेनं रूक्षं श्यावं सानिलं मारुतेन ॥ (सुश्रुत) ३.................................."तत्र वातेन विड्जलम् । अल्पाल्पं शब्दशूलाढ्यं विबद्धमुपवेश्यते । रूक्षं सफेनमच्छं च ग्रथितं वा मुहुर्मुहुः ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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