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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि वैकारिकी ६६७ आन्त्रनिबन्धीक ग्रन्थियों में व्रणशोथ हो जाता है। रोगकारक दण्डाणु में आक्रामक शक्ति उतनी नहीं होती पर इसकी विभीषिका का कारण होता है उसके द्वारा उत्पन्न विषरक्तता तथा वमन और अतीसार के कारण होने वाला जलाभाव । अतीसार के रूप में चावल के मण्ड के वर्ण के दस्त चलते रहते हैं। मृत्यूत्तर परीक्षण पर पेशियों में विदरण तथा आकुंचन, ऊतियों में जलाभाव तथा दक्षिण हृत्अलिन्द में अर्द्ध आतंचित रक्त की उपस्थिति मिलती है। यकृत् में रक्ताधिक्य मिलता है। पित्ताशय में पित्ताधिक्य के कारण विस्तार बढ़ जाता है। आँत की श्लेष्मलकला लाल हो जाती है उसके अन्दर मण्डसदृश पदार्थ भरा होता है। जिसमें असंख्य विसूची दण्डाणु मिल सकते हैं। ये जीवाणु रक्त से, वृक्कों से तथा प्लीहा से भी प्राप्त किए जा सकते हैं। अलसक अलसकमुपदेक्ष्यामः दुर्बलस्याल्पाग्नेबहुश्लेष्मणो वातमूत्रपुरीषवेगविधारिणः स्थिरगुरुबहुरूक्षशीतशुष्कान्नसेविनः तदन्नपानमनिलप्रपीडितं श्लेष्मणा च निबद्धमार्गमतिमात्रप्रलीनम् अलसत्वान्न बहिर्मुखी भवति । ततश्छद्यतीसार वर्जान्यामप्रदोषलिंगानि अभिसन्दर्शयत्यतिमात्राणि । अतिमात्रप्रदुष्टाश्च दोपाः प्रदुष्टामबद्धमार्गास्तिर्यग् गच्छन्तः कदाचिदेव केवलमस्य शरीरं दण्डवत् स्तम्भयन्ति अतस्तमलसकमसाध्यं ब्रुवते । विरुद्धाध्यशनाजीर्णाशनशीलिनः पुनरेव दोषम् आमविषमित्याचक्षते भिपजो विपसदृपलिङ्गत्वात् । तत् परमअसाध्यमाशुकारित्वात् विरुद्धोपक्रमत्वाच्चेति। चरक । २-कुक्षिरानह्यतेऽत्यर्थ प्रताम्यति विकूजति । निरुद्धो मारुतश्चापि कुक्षावुपरिधावति ॥ __वातव!निरोधश्च कुक्षौ यस्य भृशं भवेत् । तस्यालसकमाचष्टे तृष्णोद्गारावरोधकौ ॥ (सुश्रुत उ. तं. ५६) चरक ने अलसक का वर्णन करते हुए पुनः एक बार उस परिस्थिति का स्पष्टीकरण कर दिया है जिसमें अलसक तैयार होता है। अर्थात् जो व्यक्ति दुर्बल होते हैं, जिनकी अग्नि मन्द हो गई रहती है तथा जिनमें कफाधिक्य या कफ का अतिसंचय पाया जाता है, जो वात के, मूत्र के, मलत्याग के वेगों को रोका करते हैं; जो स्थिर, भारी, बहुतसा, रूखा, ठण्डा, सूखा अन्न सेवन करते रहते हैं उनका उदरस्थ अन्नपान वायु द्वारा पीडित किया जाता है। कफ उसके ऊपर या नीचे जाने के मार्ग को रोक देता है जिससे अन्नादिक अन्दर ही अन्दर लीन होने लगता है और तीव्र विषरक्तता की उत्पत्ति करने में समर्थ होता है वह (वमन या अतीसार के रूप में) बहिर्मख नहीं हो पाता। इसके कारण वमन और अतीसार को छोड़कर आमदोषजन्य अन्य सब लक्षण खूब ही देखने में आते हैं। इस प्रकार खूब ही प्रदुष्ट हुए दोष प्रदुष्ट आम से बद्धमार्ग के कारण तिर्यक गति करके कभी कभी सम्पूर्ण शरीर को ही दण्ड के समान स्तम्भित कर देते हैं । जिसे दण्डालसक कहा जाता है। ____अलसक में कुक्षि खूब फूल जाती है, रोगी को मूर्छा आ जाती है, वह खूब चिल्लाता है, वायु रुकने के कारण कुक्षि के ऊपरी भागों (हृदय कण्ठ) तक घूमता है । इस प्रकार जिसमें वायु और मल का अत्यन्त निरोध होता है, जिसमें डकारें और प्यास खूब मिलती है वह अलसक कहलाता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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