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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६६ विकृतिविज्ञान ३. वातज विसूची वातज अलसक विष्टब्धाजीर्ण से वातज विलम्बिका उत्पन्न हो सकते हैं यह कल्पना भी दृष्टिपथ पर प्रत्येक चिकित्सक को रखना चाहिए । अब हम इन तीनों की विकृति का वर्णन करते हैं। विसूची या विसूचिका १. तत्र विसूचिकामूर्ध्वञ्चाधश्च प्रवृत्तामदोषा यथोक्तरूपां विद्यात् । ( चरक) २. सूचीभिरिव गात्राणि तुदन् संतिष्ठतेऽनिलः । यत्राजीर्णन सा वैद्यैर्विसूचीति निगद्यते ॥ न तां परिमिताहारा लभन्ते विदितागमाः । मूढारतामजितात्मानो लभन्तेऽशनलोलुपाः ।। मूर्छाऽतिसारो वमथुः पिपासा शूलो भ्रमोद्वेष्टनज़म्भदाहाः ।। वैवर्ण्यकम्पौ हृदये रुजश्च भवन्ति तस्यां शिरसश्च भेदः ॥ ( सुश्रुत ) ३. विविधैर्वेदनाभेदैर्वाय्वादे शकोपतः । सूचीभिरिव गात्राणि भिनत्तीति विसूचिका ॥ (माधवकर) अजीर्णोत्थ विसूचिका में आमदोष ऊर्ध्व और अधोमार्गों से प्रवृत्त होते हैं। इस रोग में शरीर में सूची (सुई ) जैसी चुभन वायु उत्पन्न करता है। यह रोग परिमित मात्रा में आहार सेवन करने वालों में नहीं होता पर जो मूढ-असंयमी होते हैं और भोजनभट्ट करके प्रसिद्ध हैं वे ही इसे प्राप्त करते हैं। इसमें मूर्छा, अतिसार, वमन, तृष्णा, शूल, भ्रम, उद्वेष्टन, जम्भा, दाह, वैवर्ण्य, कम्प, हृच्छूल तथा शिरःशूल ये लक्षण मिलते हैं । यह रोग आमदोषोत्थ होने पर भी इसमें वायु का विशेष प्रकोप होता है और वमन अतीसारादि के अतिरिक्त उदर में तथा सर्वाङ्ग में तीव्र शूल होता हुआ मिलता है। __ आधुनिक दृष्टि से विसूची दण्डाणु ( cholera bacillus ) द्वारा होने वाले रोग को विसूचिका माना जाता है । पर गणनाथसेन सरस्वती ने अपने सिद्धान्त निदान में लिखा है कि सूचीभिरिव गात्राणि तोदनी या विसूचिका। प्राचां सा स्यादजीर्णोत्था प्रायः प्रागहरी न सा ।। प्राचीनों द्वारा अजीर्णोत्थ विसूचिका जिसमें गात्र में सूचीवत या तोदनयुक्त शूल रहता है प्राणहारी नहीं होता क्योंकि उसमें विसूची दण्डाणु नहीं पाया जाता। विसूचीदण्डाणुजन्य या अजीर्णजन्य विसूची दोनों में आमदोष की व्याप्ति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जब तक आमाशय की स्थिति विकारयुक्त नहीं है तब तक स्वस्थ आमाशय में विसूचीदण्डाणु कोई भी प्रभाव नहीं डालता। इस रोग में जितनी भयानकता देखी जाती है उसके अनुपात में विक्षत नहीं बनते। इसमें क्षुद्र और बृहदन्त्र दोनों ही प्रभावग्रस्त होते हैं पर उनके अधिच्छद का उपरिष्ठ भाग ही प्रभावित होता है। उसमें रक्ताधिक्य तथा निर्मोकन ( congestion and sloughing ) मिलते हैं । भीतरी अति पूर्णतः स्वस्थ वा अप्रभावित देखी जाती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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