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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि वैकारिकी उष्ण हो जाता है जिसके कारण दाह का बोध होता है। यह दाह ओष्ठ, तालु और कण्ठ में शोष अथवा दाह के रूप में व्यक्त होता है। वृन्दमाधव तथा अन्य कई आचार्यों ने अत्यग्नि को भस्मकाख्य अग्नि या भस्मक रोग नाम दिया है। अ-वर्धमानो भवेत्तीक्ष्णो भस्मकाख्यो महानलः (वृन्द) आ-भुक्तं क्षणाद्भस्म करोति यस्मात्तस्मादयं भस्मकसंशकोऽभूत् । -( यो० र०) इ-तामत्यग्निं-भस्मकाख्यम्-( अरुणदत्त) मन्दाग्नि कफाधिक्य के कारण पाचकाग्नि की एक ऐसी विकृतावस्था है जिसमें थोड़ा सा भी भोजन कर लेने पर वह बहुत मन्द गति से बड़ी देर में पच पाता है । भोजन के विलम्ब करके पचने से शरीर को पोषक तत्वों की प्राप्ति उतनी सरलता से नहीं हो पाती जितनी कि समाग्नि होने पर होती है अतः रस नामक धातु की उत्पत्ति कम हो जाती है जिस पर कि शेष धातुओं की उत्पत्ति वा पोषण का भार रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि मन्दाग्नि के साथ-साथ ही: १. शिरोगौरव ( heaviness in head or slow headache ) २. कास ( cough) ३. श्वास ( asthmatic attack ) ४. प्रसेक ( catarrh) ५. छर्दि ( vomiting) ६. गात्रसदन ( depression) उपर्युक्त छः लक्षण बढ़े हुए कफ के प्रत्यक्ष परिणाम हैं। अग्निमान्द्य पित्ताल्पता का प्रमाण है अग्निगुणभूयिष्ठ पित्त की कमी सोमगुणभूयिष्ठ कफ की वृद्धि में ही देखी जाती है अतः कफवृद्धि से मन्दाग्नि और मन्दाग्नि से कफवृद्धि का एक दुश्चक्र निरन्तर बन जाता है। __ हमने जो निष्कर्ष निकाला है उसी को सुश्रुताचार्य निम्न श्लोक में पहले से ही रख चुके हैं : विषमो वातजान् रोगांतीक्ष्णः पित्तनिमित्तजान् । करोत्यग्निस्तथा मन्दो विकारान् कफसम्भवान् ॥ ___अर्थात् विषमाग्नि वातज, तीक्षणाग्नि, पित्तज और मन्दाग्नि कफज विकारों को उत्पन्न किया करती है। पाचकाग्नि की महत्ता सारमेतच्चिकित्सायाः परमग्नेश्च पालनम् । तस्माद्यत्नेन कर्त्तव्यं वह्वेस्तुप्रतिपालनम् ।। अस्तु दोपशतं क्रुद्धं सन्तु व्याविशतानि च । कायाग्निमेव मतिमान् रक्षन् रक्षति जीवितम् ॥ सम्पूर्ण चिकित्सा का सार परमग्नि या जाठराग्नि का परिपालन होने से उसकी रक्षा करनी चाहिए। सैकड़ों दोषों के कुपित हो जाने और सैकड़ों रोगों से घिर जाने पर कायाग्नि की रक्षा करता हुआ बुद्धिमान् वैद्य जीवन की रक्षा कर लेता है। जाठरो भगवानग्निरीश्वरोऽनस्य पाचकः । सौम्याद्रसानाददानो विवेक्तं नैव शक्यते । प्राणापानसमानस्तु सर्वतः पवनस्त्रिभिः । ध्यायते पाच्यते चापि स्वे स्वे स्थाने व्यवस्थिते॥ -सुश्रुत सू० ३५ For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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