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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५६ विकृतिविज्ञान युक्तमन्नमाशु पचति स तीक्ष्णः, स एवाभिवर्धमानोऽत्यग्निरित्याभाष्यते, स मुहुर्मुहुः प्रभूतमप्युपयुक्तमन्नमाशुतरं पचति, पाकान्ते च गलताल्वोष्ठशोषदाहसन्तापाञ्जनयति, यस्त्वल्पमप्युपयुक्तमुदर शिरोगौरवकासश्वासप्रसेकच्छदिंगात्रसदनानि कृत्वा महता कालेन पचति स मन्दः। (सु. सू. स्था. अ. ३५-३८) उपर्युक्त वाक्यों में आयुर्वेदीय कल्पना का आधार चतुर्विध जाठराग्नि का जो भव्य रूप प्रकट किया गया है वह विषय को दिन के समान स्पष्ट कर देता है। अर्थात् समाग्नि वह है जो ठीक समय पर सेवन किए हुए अन्न को ठीक-ठीक पका दे। समाग्नि की यह अवस्था दोषसाम्य से उत्पन्न होती है। विषमाग्नि का कारण वातिक दोष की अधिकता होती है। विषमाग्नि वाले व्यक्ति का सेवन किया हुआ भोजन कभी ठीक पच जाता है और कभी वह साधारणतया पचता नहीं अपि तु पाचनक्रिया के साथ-साथ कई प्रकार के औदरिक विकार देखे जाते हैं जैसे : आध्मान (tympanites ) शूल ( intestinal colic) उदावर्त ( misperistalsis) अतिसार ( diarrhoea) उदरगौरव ( heaviness in abdomen ) आन्त्रकूजन (intestinal sounds) प्रवाहण (griping) कहना नहीं होगा कि सातों विकार आन्त्र में वायु के प्रकुपित होने के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। वायु के द्वारा पाचकाग्नि की विषमता उत्पन्न होती है। यथायोग्य पाचनक्रिया करने के लिए पाचकाग्नि असमर्थ हो जाती है जिससे कभी अधिक और कभी कम वेग के साथ पाचनक्रिया चलती है। अधिक चलने से प्रवाहण (कुन्थन ) आन्त्रकूजनादि विकार होते हैं कम चलने से उदर गौरव उदावर्तादि विकार उत्पन्न होते हैं। तीक्ष्णाग्नि का कारण पित्त का प्रकोप है। जब शरीर में पित्ताधिक्य हो जाता है तो पाचकपित्त का स्राव पर्याप्त मात्रा में होता है। इसी कारण से इस अग्नि का रूप तीक्ष्ण हो जाता है जिसके कारण बहुतायत से खाये हुए अन्न को भी पचाने में यह अग्नि समर्थ हो जाती है। जब यह अग्नि बहुत अधिक बढ़ जाती है तब यही अत्यग्नि कहलाती है। बार-बार प्रभूत (प्रचुर ) मात्रा में सेवन किए अन्न को अतिशीघ्र पचा देती है पाचन के उपरान्त गलशोष ( dry throat) गलदाह ( hot or infilammed throat) तालुशोष (dry palate ) तालुदाह ( inflammed palate ) ओष्ठशोष ( dry lips) ओष्ठदाह (inflammed lips) Arang ( rise in temperature ) ये लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। ये सभी लक्षण पित्ताधिक्य के प्रत्यक्ष परिणाम हैं। खाने और पचाने में पाचन क्रिया की अति हो जाती है जिससे संस्थान अत्यन्त For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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