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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ६२६ ( Minkawski chauffard type ) तथा अवाप्त को हायेम विडाल टाइप (Hayem-Widal type) कहा जाता है। सहज में रक्तशोणांशियों ( heemolysis ) रहित होता है पर अवाप्त में रक्त में शोणांशियां पाई जाया करती हैं। अब हम इन दोनों का वर्णन यथामति उपस्थित करते हैं। अपित्तमेहिकपाण्डु ( acholuric jaundice ) इसको गोलकायारणूत्कर्ष (spherocytosis ), सहज शोणांशीय रक्तक्षय ( congenital haemolytical anaemia ), या मिङ्का उस्की चौफार्ड प्रकार का रक्तक्षय आदि नामों से भी पुकारते हैं। इसे अपित्तमेहिक यह नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि इस रोग से पीडित होने पर रोगी का वर्ण तो पाण्डु हो जाता है पर उसके मूत्र से पित्त का बिल्कुल भी स्राव न होने से मूत्र का वर्ण पीला कदापि नहीं होता। अपित्तमेहिक पाण्डु सहज और कुलज ( familial ) रोग है। एक ही परिवार के कई सदस्य एक साथ इससे पीडित हो जाते हैं तथा ३-४ पीढियों तक इस रोग का इतिहास मिल सकता है। यह रोग शिशु के जन्म के साथ रहने वाला होते हुए भी इसके लक्षण शैशव, बालपन तथा तारुण्य तक में देखने में नहीं आते कभी कभी तो जीवन भर उनकी स्पष्टता नहीं देखी जाती । रक्त में कोई विकृत शोणांशियाँ नहीं देखी जाती और न यही सिद्ध होता है कि शोणांशन का आधार प्लीहा में उपस्थित कोई प्राथमिक दोष हो। रक्तक्षय और पाण्डुवर्णता जो इस रोग में पाई जाती है उन दोनों में कोई समीप का सम्बन्ध नहीं होता है। न एक दूसरे पर निर्भर ही रहता है । पित्तरक्ति ( bilirubin ) की रक्त में स्थित मात्रा न केवल शोणांशन के क्रमबन्धन (grade ) पर ही निर्भर करती है पर वह यकृरकोशाओं के उत्सर्जन की शक्ति पर भी निर्भर रहा करती है। ___इस रोग के कारण उत्पन्न पाण्डु एक बार होकर निरन्तर जीवन भर देखा जाता है। इसी कारण बहुत से व्यक्तियों की आँखों तथा त्वचा में पीलापन निरन्तर एक-सा देखने में आता है स्वास्थ्य पर रोग का कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता है तथा यह रोग मारक भी नहीं होता है। पैत्तिक अवरोध से उत्पन्न पाण्डु तथा इस पाण्डु में मुख्य अन्तर यह है कि अवरोधजन्य पाण्डु में हरापन विशेष रहता है जो यहाँ नहीं मिलता। यहाँ पर तो रंग एकदम स्पष्टतः पीला रहता है। दूसरे अवरोधजन्य पाण्डु ( obstructive jaundice ) में मृत्तिकावर्णीय पुरीष (clay-coloured stool ) होता है। जब कि शोणांशिक पाण्डु में मूत्र से पित्त रंगा ( bile pigment ) खूब निकलता है पर यह रंगा मूत्र द्वारा कदापि प्रकट नहीं होता इसी से इसे अपित्त मेहिक पाण्डु (acholuric jaundice) नाम दिया जाता है । मूत्र से यद्यपि पित्तरक्ति का उत्सर्ग नहीं होता पर यूरोबिलीन (मूत्रपित्ति ) प्रचुर परिमाण में प्रकट होती है। इस रोग में कभी कभी प्लीहा या यकृत् प्रदेश में शूल के साथ वमन का दौरा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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