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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२८ विकृतिविज्ञान (३) रक्तरहीयरक्तक्षय ( erythroblastic anaemia) (४) आवेगयुक्तमांजिष्ठमेह ( paroxysmal haemoglobinuria) उत्तरजात या द्वितीयक शोणांशीय रक्तक्षय में निम्नलिखित व्याधियाँ सम्मिलित मानी जाती हैं १. सर्पदंश ( snake bite ). २. विषम ज्वर ( malaria). ३. शोणांशीय मालागोलाणुजन्य उपसर्ग (infection due to streptococcus haemolyticus ) तथा घातक रक्तक्षय में भी एक मुख्य लक्षण के रूप में शोणांशीय रक्तक्षय उपस्थित रहा करता है।। शोणांशीय रक्तक्षयों का पृथक्-पृथक् वर्णन आरम्भ करने के पूर्व सभी में पायी जाने वाली विकृतियों का कुछ विचार कर लेना परमावश्यक है। यदि रक्त के बहुत से लालकण द्रुतगति से टूटने लगे तो मूत्र में शोणवर्तुलि (मांजिष्टमेह) निकलने लगता है तथा पाण्डु (jaundice ) के लक्षण भी पर्याप्त मिलने लगते हैं। पर यदि चिरकाल से शोणांशिक रक्तक्षय चल रहा हो तो जो बड़ी आश्चर्यजनक घटना दिखाई देती है वह है पाण्डुवर्णता की कमी । रंगदेशना एक या उसके आस-पास रहा करती है और इसका परिवर्तन अस्थिमज्जा की प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है । यतः अस्थिमज्जा इस रक्तक्षय को दूर करने के लिए अत्यधिक प्रयत्नशील होती है इसलिए रक्त में जालकायाणुओं (reticulocytes ) की संख्या पर्याप्त होती है। तथा परिणाही रक्त (peripheral blood ) में सन्यष्टिरक्तकोशा (nucleated blood cells) भी पाये जा सकते हैं। रक्त के श्वेतकणों का उत्कर्ष इस रोग की तीव्र अवस्थाओं में देखा जाता है जब द्रुतगति से अंशन हुआ करता है । उस अवस्था में अप्रगल्भ सितकायाणु भी रक्त में पाये जा सकते हैं। जीर्ण शोणांशिक रक्तक्षय की अवस्था होने पर सितकोशाओं ( leucocytes) की संख्या प्रायः अप्रभावित रहती है पर कभी कभी कुछ थोड़ी घट भी जाती है। रोग के आरम्भकाल में रक्त के बिम्बाणुओं की संख्या घट जाती है पर आगे जाकर फिर ज्यों की त्यों हो जाया करती है। शोणांशन के कारण यकृत्प्लीहोदर का होना, लसग्रन्थियों की वृद्धि तथा अस्थि मज्जा का परमचय तथा शोणायसि का उत्कर्ष ( haemosiderosis ) हो सकता है। इस रोग में महास्रोत या वातनाडीसंस्थान आदि प्रकृत रहते हैं। उनमें कोई विकार नहीं देखा जाया करता है। अब हम पहले प्रथमजात शोणांशीय रक्तक्षय का वर्णन करेंगे। शोणांशिक पाण्डु ( Haemolytic Jaundice ) इसके दो रूप मुख्यतया देखे जाते हैं-एक सहज ( congenital ) तथा दूसरा अवाप्त (acquired) इनमें सहज को मिङ्काउस्की चौफार्ड टाइप For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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