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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 7 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभय-रत्नसार । ७२३ पहले कहे हुए २२ अभक्ष्योंके साथ इस ग्रन्थोंमें ११, १८, २०, २१ और २२ नम्बर वाले अभक्ष्य विशेष है, इनका भी त्याग करना चाहिये । अभक्ष्य अनन्तकाय दूसरेके घर, अचित्त किया हुआ हो; तो भी नहीं खाना चाहिये ; क्योंकि एक तो दोष लगे और दूसरे व्यसन पड़ जाये । सोंठ तथा हल्दी नाम तथा स्वादका पेर होने से अभक्ष्य नहीं रह जाते । इन अभक्ष्योंमें भाँग, अफ़ीम आदिकी जिन्हें लत लगी हुई है, उनको चाहिये, कि उसकी नाप-तौल ठीक रखे। रात्रि भोजनके बारेमें चौबिहार तिविहार या दुविहारका नियम ले लीजिये, कि एक महीनेमें इतना करेंगे। यदि रोगके कारण दवाके तौर पर कोई अभक्ष्य पदार्थ खाना पड़े तो उसका नाम, समय और वजन भलीभाँति समझ लेना चाहिये । यदि कभी कोई चीज़ अनजानते में खा ली जाये, तो उससे व्रतका भङ्ग नहीं होता । श्रावकोंको अन्य मतोंके मानने वालों या जाति बिरादरी वालोंके यहाँ जीमने जाना पड़ े, तो बहुत समझ-बुझ कर जीमना चाहिये; क्योंकि उनके यहाँ २२ अभक्ष्य और ३२ अनन्तकाय मेंसे कुछका दोष तो अवश्य ही लग जानेका डर रहता है । इसीसे जहाँ तक बन पड़े, बहुत कम आदमियोंसे जान-पहचान रखे, वहीं तक अच्छा है। ख़ास कर द्वादशव्रतधारी तथा विरति व्रतवालोंको तो ऐसी जगहों में जाकर जीमना ही नहीं चाहिये । उधर जो बाईस अभक्ष्योंका वर्णन किया गया है, उसको भलीभाँति समझने की चेष्टा करनी चाहिये । स्वयं भगवान् ने उनके For Private And Personal Use Only
SR No.020001
Book TitleAbhayratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherDanmal Shankardas Nahta
Publication Year1898
Total Pages788
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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