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३३८. स्तवन-संग्रह। णजने दीह कालकी सन्ना होय, केइक आचारज कहे दिठिवाय थी दोय ॥ निच्चय पज्जत्ता पंचिंदि तिरि नर जेह, चौविह देवां माहे आवी ऊपजै तेह ॥ १७॥ संखाउपज्जत पंचेंदी तिरि नर तेम, पज्जत्ता भू दग पत्तेय वणस्सई जेम ॥ ए सबरमें निश्चै सुरनी आगयि हुंति, पज्जत संख गब्भय तिरि नर सब नरके जंत ॥ १८ ॥ नरक उद वरत्या नर तिर उपजै न हुवे सेस, भू अप्प वणस्सइमें नरग विण उपजै असेस ।। पुढवाई दस पयमें भू आऊ वणजंति, पुढवाई दस पयमें तेउ वाऊ उवजंत ॥ १६ ॥ तेउ वाऊ नो गमण पुढवी पद नवमें हुत, पुढवाई दस पदमें विगल जावंत आवंत ॥ सहुमें तिर गति
आगति मणुआ सहुमें जाय, तेउ वाऊथी मरीने जीव मनुज नवि थाय ॥ २० ॥ श्रीपुरसै चाविह सुर तिरि नर तीन वेद, थावर विगल नारकने एक नपुंसक भेद ॥ पजता मण बादर अगन
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