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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ स्तवन -संग्रह | एकेंद्री, तरु साधारण पांमी रे ॥ ज० ॥ वरस संख्याता वलि विकलेंद्री, वेष धरया दुख धामी रे ॥ ज० ॥ ४ ॥ मु० ॥ सुर-नर तिरि वली नरकतणी गति, पंचेंद्रीपणो धात्यो रे ॥ ज० ॥ चोवीसे दंडक मांहि भमियो, अब तो हूँ पिण हायो रे ॥ ज० ॥ ५ ॥ मु० ॥ भव नाटक नित करतो नव नव, तुझ आगल नाच्यो रे ॥ ज० समरथ साहिब सुरतरु सरिखो, निरखी तुझने याच्यो रे ॥ ज० ॥ ६ ॥ मु० ॥ जो मुझ नाटक देखी भया, तो मन वंछित दीजे रे ॥ ज० ॥ जो नवि रीभया तो मुख भाखो, वलि नाटक नवि कीजे रे ॥ ज० ॥ ७ ॥ मु० ॥ लालच धरि हू सेवा सारू, तुं दुखडा नवि कापे रे ॥ ज० ॥ दाता सेती सूँ म भलेरो, वहिलो उत्तर आपे रे ज० ॥८॥ मु० तुझ सरिखा साहिब पिण माहरो. जो नवि कारज सारो रे ॥ ज० ॥ तो मुझ कर - मतणी गति अवली, दोस न कोई तुमारो रे ॥ ु For Private And Personal Use Only
SR No.020001
Book TitleAbhayratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherDanmal Shankardas Nahta
Publication Year1898
Total Pages788
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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