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________________ Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts, Pt. XVIII ( ria) 497 CLOSING : पास सामि जो नमइ तिसंझ, हलि सहिजं मचि जाइ अवज्झ । कमठ महासुर कय उवसगां, झाडि कोपं वंझ हंसं ॥२९।। मुहि चंदप्पह अइ जिणु मत्थय, पारस नत्थ । ईगइ मुद्रिहिं मुद्रिउ, को फेडणह समुत्यु ॥३०॥ उरि मुद्र सिरि मुद्र पास मुद्र............. इणहं मुद्रिहिं मुद्रिउ हीडइ चारि समुद्र ॥३१॥ संखिहिं तूरिहिं प्रावहइ सामइ दिन्नी मुद्र । एहु दुलंघा कालं घिसीइ पारस माथी मुद्र ॥३२॥ COLOPHON ___ इति श्रीवैरोट्या स्तोत्रम् । 1815/7856 साधारणजिनस्तव-सावचूरि OPENING: अम्भोजाक्षी मृदुतरभुजा वक्रकेशी विमुञ्चन् । कश्चित्कान्ता विरहगुरुणा स्वाधिकारप्रमत्तः । लोकेनोच्चैविषयविमुखो बोध्यमानो नरो यो। दीक्षो नेतस्तव वचनतोऽदादसौ त्वत्प्रभावः ॥१॥ स्वमात्मीयानामाधीनां कारे छेदे प्रमत्तः त्यक्तस्वजन प्रीतिकार इत्यर्थः ॥१॥ दुर्गत्यध्वा कुनय निपुणाश्चेतसा सारधर्मो । कश्चित्कान्ता विरहगुरुरणा स्वाधिकारप्रमत्तः । शुद्ध क्यैिः प्रसृमररसात् बोधितो धर्मदानानोचेदेतावत तव सुखे दुक्खहेतुर्भवित्य: ॥२॥ मानसेन सारमुत्कृष्टं धर्मो कः पुण्यगृहं चिनोतीति । स्वस्मादधिकं यदारमरिव तन्न प्रमत्तो निरवधानं त्वसद्वाक्यः । पाठान्तरम् ।२। धर्म कुर्यात् यदि न हि जनो गाढमोहे न लिप्तः । कश्चित्कान्ता विरहगुरुणा स्वाधिकारप्रमत्तः । माभूः भूयो महजिनवरं धेहि वैराग्यमन्त: शान्तो दान्तो भवभव"...."वाञ्छास्ति ते चेत् ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018050
Book TitleSanskrit and Prakrit Manuscripts Jaipur Collection Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Jamunalal Baldwa
PublisherRajasthan Oriental Research Institute Jodhpur
Publication Year1984
Total Pages634
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationCatalogue
File Size20 MB
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