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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir अनुच्छेद-Paragraph की बायीं ओर निकला हुआ गाढ़े अक्षरों - Bold type में छपा है. २. प्रत महत्तादि सूचक चिह्न : प्रत संशोधित होने, टिप्पणक आदि से युक्त होने, कर्ता के स्वहस्ताक्षर से लिखित होने, अशुद्ध होने इत्यादि हेतु विद्वानों को प्रत की इस महत्ता का स्तर बताने के लिए क्रमांक के बाद में कोष्टक के अंदर इस तरह (+), (), (4) चिह्न दिए गये हैं. २.१. प्रत संशोधित होने, टिप्पणक आदि से युक्त होने व कर्ता के स्वहस्ताक्षर से लिखित होने पर प्रत की महत्ता को बताने के लिए प्रत क्रमांक के बाद (+) का चिह्न लगाया गया है. यह चिह्न न होने का मतलब यह नहीं होता कि प्रत शुद्ध नहीं है. २.२ प्रत दुर्वाच्य, अवाच्य, अशुद्ध पाठ वाली होने पर प्रत क्रमांक के बाद () का चिह्न लगाया गया है. इनका उल्लेख 'प्र.वि.' में प्राप्त होगा. २.३ कट, फट जाने आदि के कारण हुई प्रत व पाठ की निम्नोक्त अवदशाओं की जानकारी कराने के लिए प्रत क्रमांक के अंत में (*) का चिह्न लगाया गया है. सूची में इनका उल्लेख 'दशा वि.' के तहत प्राप्त होगा. ३. प्रतनाम : यह नाम प्रत में रही कृति/कृतियों के प्रत में उपलब्ध नाम के आधार से बनता है. यथा- बारसासूत्र, आवश्यकसूत्र सह नियुक्ति व टीका, कल्पसूत्र सह टबार्थ व पट्टावली, गजसुकुमाल रास व स्तवन संग्रह, स्तवन संग्रह, जीवविचार, कर्मग्रंथ आदि प्रकरण सह टीका... इत्यादि. प्रत में दिए गए नामों से सम्बन्धित विस्तृत ब्यौरा प्रथम खंड के पृष्ठ ३३-३४ पर देखें. ४. पूर्णता - हस्तप्रत की पूर्णता, उपयोगिता व स्पष्टता को ध्यान में रखते हुए इसे निम्नप्रकार से वर्गीकृत की गई है. १. संपूर्ण : पूरी तरह से संपूर्ण प्रत, २. पूर्ण : मात्र एक देश से अत्यल्प अपूर्ण प्रतों को अपूर्ण न कह कर 'पूर्ण' संज्ञा दी गई है, ३. प्रतिपूर्ण : प्रतिलेखक द्वारा कोई खास अध्याय अंश मात्र ही लिखा हो और उतना संपूर्ण हो, ४. अपूर्ण : प्रत के आदि/अंत का एक बड़ा अंश अनुपलब्ध हो. ५. त्रुटक : बीच-बीच के अनेक पत्र अनुपलब्ध हो. ६. प्रतिअपूर्ण : प्रतिलेखक ने कोई खास अध्याय मात्र ही लिखा हो और उसमें भी पत्र अनुपलब्ध हो. • जहाँ प्रत व प्रतगत कृतियाँ दोनों की पूर्णता एक जैसी होगी, वहाँ मात्र प्रत स्तर पर ही पूर्णता का उल्लेख मिलेगा. परंतु प्रतगत किसी भी कृति की पूर्णता यदि प्रत से भिन्न होगी, वहाँ प्रत्येक कृति के साथ भी खुद की पूर्णता का उल्लेख मिलेगा. • कृति स्तर पर यह मात्र - संपूर्ण, पूर्ण व अपूर्ण इन तीन प्रकारों में से कोई एक ही मिलेगा. ५. प्रतिलेखन संवत् : प्रत में विक्रम, शक आदि संवत् उपलब्ध हो तो वही वास्तविक रूप से दिया गया है, अन्यथा लेखन शैली, अक्षरों की लाक्षणिकता आदि के आधार पर विक्रम संवत के अनुमानित शतक का उल्लेख किया गया है. ६. प्रत दशा प्रकार : श्रेष्ठ, मध्यम, जीर्ण. दशा सम्बन्धी विशेष माहिती 'प्र. दशा' के अंतर्गत दी गई है. ७. पृष्ठ माहिती (पृ.) : प्रत के प्रथम व अंतिम उपलब्ध पृष्ठांक, घटते-बढते पृष्ठ व उनका योग एवं कुल उपलब्ध पृष्ठ इतनी माहिती यहाँ आएगी. यथा - १ से ५०-४ (५, ७, १५, २७) = ४६; ५ से ६०-३ (३*, १७, १८) = ५३; ५ से ६० ३ (३*, १७, २८) + २ (४, ३५) = ५५. यहाँ अंक पर * का चिह्न अवास्तविक घटते पत्र का सूचक है. ८. लिपि माहिती : प्रत जिस लिपि में लिखी गई है, उसका उल्लेख यहाँ किया गया है. ९. प्रत प्रकार : सामान्यतः कागज की बिना बंधे - छुट्टे पत्रों वाली प्रतों से भिन्न, किसी भी पदार्थ पर लिखी गई गुटका आदि प्रकार की प्रत होगी तो उसका उल्लेख यहाँ आएगा. अन्यथा 'प्रत सर्व सामान्य कागज के बिन बंधे पत्रों की है' यह समझ लिया जाना चाहिए. १०. प्रतिलेखन स्थल माहिति (ले.स्थल) : जिस स्थल पर प्रत-लेखन कार्य हुआ हो, उसका उल्लेख यहाँ दिया गया है. ११. प्रतिलेखक नाम (ले.) : प्रत की प्रतिलिपि लिखने-लिखवाने वाले विद्वान या लहिया आदि नाम गुरू, गच्छ माहिती के साथ यहाँ दिए गए हैं. For Private And Personal Use Only
SR No.018025
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size4 MB
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