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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir १२.१. नहीं : जब हस्तप्रत में कृति की समाप्ति के बाद कुछ भी लिखा नहीं होता तब प्रतिलेखन पुष्पिका की उपलब्धि 'नहीं' के रूप में दी गई है. १२.२. सामान्य : जब प्रतिलेखक का नाम, प्रतिलेखन का वास्तविक वर्ष, लेखन स्थल आदि संबंधी सामान्य सूचनाएँ उपलब्ध हो तब इसे 'सामान्य' लिखा जाता है. १२.३. मध्यम : जब प्रतिलेखक के गुरु, प्रेरक, गच्छ आदि तक की सामान्य माहिती हो तब 'मध्यम' स्वरूप की प्रतिलेखन पुष्पिका कही जाती है.. १२.४. विस्तृत : जब विस्तार से लहिया, गुरुपरम्परा, राजा, अमात्य आदि का वर्णन हो, वहाँ 'विस्तृत' प्रतिलेखन पुष्पिका मानी जाती है. १२.५. अतिविस्तृत : जब प्रतिलेखन पुष्पिका में विशेष रूप से अन्य अनेक सूचनाओं, कार्यों, घटनाओं आदि का वर्णन मिलता है तब उसे अति विस्तृत कहा जाता है. प्रस्तुत सूची में उपयोगीता की दृष्टि से मात्र मध्यम एवं विस्तृत का ही उल्लेख मिलेगा. अति विस्तृत का उपयोग भावी सूची पत्रों में होना हैं. १३. प्रतविशेष : प्रत संबंधी शेष उल्लेखनीय अन्य बातों का एवं प्रतगत कृति संबंधी परंतु संभवतः इसी प्रत में उपलब्ध; ऐसी उल्लेखनीय बातों का समावेश यहाँ किया गया है. खासकर कृति के परिमाण संबंधी अध्याय-ढाल आदि, गाथा, श्लोक, सूत्र आदि एवं ग्रंथाग्र की इस प्रत में उपलब्ध संयुक्त व स्वतंत्र संख्या का यथोचित उल्लेख किया गया है. कई बार यह देखा गया है कि पद्यबद्ध कृतियों में पद्य संख्या में विभिन्न प्रतों में विविधता मिलती है. अतः इनका उल्लेख यहाँ किया गया है. कई बार ग्रंथाग्र संख्या लहिया अपनी और से बढ़ाकर लिख देता था - इस तरह की सूचना को 'प्र.पु.-' पूर्वक लिखा गया है. इसी तरह प्रत क्रमांक के साथ दिए गए (+- चिह्नों हेतु शुद्धता आदि दर्शक आवश्यक सूचनाएँ भी यहाँ पर दी गई है. प्रत यदि पंचपाठ, त्रिपाठ, द्विपाठ पद्धति से लिखी गई हो उसकी भी सूचना यहाँ दी गई है. १४. पूर्णता विशेष : प्रत यदि संपूर्ण नहीं है तो कृति का कौन सा अंश उपलब्ध/अनुपलब्ध है यह स्पष्टता इसमें होगी. साथ ही प्रत यदि प्रतिलेखक द्वारा ही अपूर्ण छोड़ दी गई है तो उसका उल्लेख भी यहाँ होगा. अपूर्ण प्रतों में प्रारंभ व बीच के पत्र यदि अनुपलब्ध है तो उनका पता पृष्ठ माहिती के बढ़ते घटते पत्रों से चल जाता है परंतु अंत के पत्रों की अनुपब्धि का एकाएक विवरण यहाँ दिया गया है. १५. दशा विशेष : प्रत क्रमांक के साथ न द्वारा सूचित प्रत जीर्ण दशा व उसकी मात्रा संबंधी स्पष्टता यहाँ पर दी गई है. इसके आधार पर प्रत की उपयोगिता तय हो सकती है. १६. प्रतिलेखन श्लोक : प्रत के अंत में प्रतिलेखन पुष्पिका के साथ - जलाद् रक्षेत्..., यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा... आदि श्लोक दिए होते है इन श्लोकों/गाथाओं का संग्रह अलग से भावी खंडों में परिशिष्ट में दिया जाएगा. उस परिशिष्टगत श्लोकांक यहाँ लिखे मिलेंगे. साथ ही साथ संकेत के रूप में प्रथम पाद भी दिया गया है. १७. लंबाई, चौड़ाई : प्रत की लंबाई चौड़ाई आधे से.मी. के अंतर की शुद्धि के साथ यहाँ दी गई है. सामान्यतः जैन प्रतों के पृष्ठ, फिर भले ही वे चाहे १००० से भी ज्यादा क्यों न हो, बड़े ढंग से एक समान नाप में कटे मिलते हैं फिर भी अपवाद रूप मामलों में ये पत्र एक ही प्रत में छोटे-बड़े भी मिलते हैं वहाँ पर '-' से विभाजित कर पत्रों का लघुतम व महत्तम नाप दिया गया है. यथा २५.५-२७७१३.५-१४.५ - यहाँ पर 'x' के पूर्व में लघुतम व महत्तम लंबाई है एवं बाद में लघुतम व महत्तम चौड़ाई दी गई है १८. पंक्ति-अक्षर : नाप ही की तरह पृष्ठगत पंक्ति व पंक्तिगत अक्षरों को भी अंदाजन गिन कर लघुतम व महत्तम रूप से दिया गया है. नाप, पंक्त्याक्षर व कुल पृष्ठ संख्या के आधार पर आवश्यकता पड़ने पर कुल पृष्ठ x २ (पहलू) x पंक्ति x अक्षर/ ३२ - इस तरह गिनती कर के प्रत का अंदाजित ग्रंथमान निकाला जा सकता है. प्रत में जब मूल व टीका/बालावबोध दोनों ही हो तब सामान्यतः मूल ही के पंक्ति अक्षर दिए गए है - क्वचित लघुतम व महत्तम में दोनों की ही इकट्ठी गणना हो गई हैं. जिन प्रतों में पंक्ति, अक्षर दोनों में से जिसका भी अंदाज निकालना शक्य नहीं था 36 For Private And Personal Use Only
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
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