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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५. प्रतिलेखन संवत : प्रत में उपलब्ध विक्रम, शक आदि संवत या लेखन शैली, अक्षरों की लाक्षणिकता आदि के आधार पर अनुमानित विक्रम संवत का उल्लेख किया गया है. ६. प्रत दशा : प्रथम दृष्टि से पता चल सके इस हेतु श्रेष्ठ, मध्यम, जीर्ण इन तीनों में से कोई भी एक माहिती यहाँ अवश्य दी गई है. दशा संबंधी विशेष माहिती 'प्र दशा' के अंतर्गत दी गई है. १ से ५०-४ (५, ७, १५, २७) = ४६. ५ से ६० (३*, १७, १८) = ५३. ७. पृष्ठ माहिती : प्रत के प्रथम व अंतिम उपलब्ध पृष्ठांक, घटते-बढ़ते पृष्ठ व उनका योग एवं कुल उपलब्ध पृष्ठ इतनी माहिती यहाँ आएगी. यथा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1*1 यहाँ ३ के साथ जो है वह अवास्तविक घटते पत्र का सूचक है यह पत्र हकीकत में घट नहीं रहा है परंतु प्रतिलेखक ने पत्रांक लिखने में भूल की है व एक अंक कुदा गया है. पाठ कहीं नहीं टूट रहा है. क्वचित अवास्तविक घटते पत्र हेतु (३+४) ऐसा भी लिखा होता है. अवास्तविक घटते पत्र की असर प्रत की संपूर्णता पर नहीं पड़ती. ५ से ६० - ३ (३ *, १७, २८) + २ (४,३५) = ५५. यहाँ '+ २' के बाद जो दो पत्रांक दिए हैं वे बढ़ते पत्र के है. प्रतिलेखक ने पत्रांक लिखते समय भूल से एक ही पत्रांक दुहरा दिया होता है. ऐसे में प्रत में पत्रांक के पास अक्सर 'पर' (प्रथम) व 'द्वि' ( द्वितीया) क्रमशः लिखा मिलता हैं. ८. लिपि माहिती : यहाँ प्रत जिस लिपि में लिखी गई है उसका उल्लेख किया गया है. यथा- जैन देवनागरी, देवनागरी, गुजराती, मोडी, बंगाली, तामिल-ग्रंथम्, मलयालम, कन्नड़, उडिया इत्यादि प्रस्तुत विभाग में समाविष्ट लगभग सभी हस्तप्रतों की लिपी जैन देवनागरी (जैदेना.) ही है. क्वचित् देवनागरी होगी एवं अपवादरूप किस्सों में गुजराती लिपी हो सकती है.. ९. प्रत प्रकार : सामान्यतः कागज की बिनबंधे छुट्टे पत्रों वाली प्रतों से भिन्न किसी भी पदार्थ पर लिखी गई गुटका आदि प्रकार की प्रत होगी तो उसका उल्लेख यहाँ आएगा. अन्यथा 'प्रत सर्व सामान्य कागज के छुट्टे पत्रों की है' यह समझ लिया जाना चाहिए. १०. प्रतिलेखन स्थल माहिति : जिस स्थल पर प्रत का लेखन कार्य हुआ हो उसका उल्लेख यहाँ दिया गया है. कई बार एक स्थान पर लेखन प्रारम्भ किया हुआ प्राप्त होता है तथा पूर्णता किसी अन्य स्थान पर ज्ञात होती है. क्वचित विविध पेटा कृतियाँ विविध स्थलों पर एवं विविध वर्षों में विविध व्यक्तियों द्वारा लिखी गई प्राप्त होती है. ऐसे में मुख्य या अंतिम पेटा कृति की यह माहिती प्रत माहिती के साथ दी गई है एवं अन्य पेटांकों की माहिती तत् तत् पेटांक के साथ दी गई है. क्वचित मूल व टीका/टबार्थ आदि भिन्न व्यक्तियों ने भिन्न स्थल-समय पर लिखे होते हैं इसमें से मूल के साथ की माहिती का उल्लेख प्रत माहिती में होता है एवं टीका आदि की माहिती का उल्लेख होता है. पेटांक वाले मामले में दोनों का उल्लेख 'पे.वि.' में किया गया है. 'प्र.वि.' में - ११. प्रतिलेखक नाम : प्रत को लिखने वाले (विद्वान या लहिया Scribe), जिनके पठनार्थ प्रत लिखी गई हो, जिनके उपदेश से प्रत लिखी गई हो, गच्छाधिपति - जिनकी निश्रा में प्रत लिखी गई हो या अन्य किसी रूप से प्रत के साथ व्यक्ति का नाम जुड़ा हो तो ऐसे यथोपलब्ध एक या अधिक व्यक्ति / विद्वान का नाम व गुरु, गच्छ का नाम यहाँ दिया गया है. गुरु परम्परा आदि के रूप में ये नाम काफी विस्तार से भी मिलते है परंतु इस सूची पत्र में अधिकांश प्रतिलेखक, पठनार्थ, निश्रादाता गच्छाधिपति आदि एक दो नामों तक का ही समावेश किया गया है. १२. प्रतिलेखन पुष्पिका उपलब्धि संकेत यदि प्रत में प्रतिलेखन पुष्पिका (संवत, स्थल, प्रतिलेखक आदि का उल्लेख ) की उपलब्धि की मात्रा के निम्नलिखित संकेत यहाँ दिए गए है. भविष्य में इन संकेतों के आधार पर विस्तृत सूचनाएँ खड़ी की जा सकेगी. फिलहाल संवत, प्रतिलेखक पठनार्थ व स्थल की ही माहिती मुख्य रूप से दी गई है. 35 For Private And Personal Use Only -
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
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