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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir इत्यादि प्रविष्ट नहीं किये गये हैं. परंतु यदि श्री शब्द किसी नाम का भाग है तो आदि नामों के साथ श्री की प्रविष्टि की जाती है. जैसे 'श्रीपाल' श्रीधर, श्रीनाथ. १९. कृतिनाम यथासंभव शुद्ध भरने का प्रयास किया गया है. सामान्यतः व्याकरणशुद्ध व रूढनामों को मान्य रखा गया है. यथा प्रत में 'चैतमती चरचा' ऐसा नाम हो तो इसे 'चैत्यमति की चर्चा' इस प्रकार प्रविष्ट किया गया है. २०. पूजा, स्तवन, चैत्यवंदन, होरी, कवित, सवैया, पद, सज्झाय, विचार, ढाल, स्तुति, चरित्र, बोल, रास, चौपाई, प्रकरण, श्लोक, आराधना, कुलक, विधि आदि कृति प्रकार रचना शैली सूचक शब्द नाम में सम्मिलित न लिख जगह छोड़ कर अलग ही लिखे गये हैं. जैसे- अष्टप्रकारी पूजा, आध्यात्मिक सवैया, पुण्य कुलक, चारित्र आराधना, धन्य चरित्र रास. २१. पच्चीसी, बावनी, छत्रीसी, बत्रीसी आदि छंद परिमाण सूचक शब्द नाम में अलग न कर एक साथ रखे गये हैं. जैसे अध्यात्मपच्चीसी, छंदबावनी. २२. तीर्थंकर आदि नाम के आगे गाँव, विषय या विशेषण आदि शब्दों को अकारादिक्रम में एकरूपता लाने हेतु मूलनाम के बाद हाईफन (-) देकर रखा गया है. जिसमें 'मंडन' आदि शब्दों का प्रयोग यथाशक्य टाला गया है. जैसे- पार्श्वजिन स्तवन- स्थंभन, आदिजिन स्तवन-विनतीरूप. २३. प्रत की अपूर्णता आदि की वजह से प्रत का 'स्थूलिभद्र रास' जैसा सामान्य नाम का तो पता चला हो परंतु कर्ता, आदिवाक्य, अंतिमवाक्य, गाथा आदि परिमाण का किसी तरह से पता न चलता हो ऐसे में प्रायः अन्य माहिती विहीन मात्र नाम वाली काल्पनिक कृति ली गई है एवं उसके नाम के अंत में भेद दर्शक '*' अंकित किया गया है. २४. इसी तरह जिस कृति का नाम भी पता नहीं चलता हो और उसे स्पष्टरूप से बना कर दे पाना भी संभव नहीं हो वहाँ पर सर्वसामान्य काल्पनिक कृतियाँ बना कर उन्हें ले लिया गया है - यथा जैन काव्य* इत्यादि एवं इनके नाम के पीछे भी सामान्य कृति सूचक* अंकित कर दिया गया है. २५. व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, तंत्र, मंत्र आदि से संबंधित कृतियों के साथ प्रायः कृति की पहचान करना मुश्किल होता है, ऐसे मामलों में भी विवेकाधीन सामान्य कृति हेतु नाम के अंत में '*' का उपयोग किया गया है. कृति संबंधी कुछ विशेष बातें जहाँ पर एक ही कृति के गाथादि परिमाण में पर्याप्त बड़ा भेद मिला हो वहाँ वहाँ उस कृति की एकाधिक आवृत्तियाँ मान्य रखी गई हैं व यथावश्यक कृतिनाम के ही अंत में स्पष्टता हेतु गाथा संख्या का उल्लेख कर दिया गया हैं. यथा१. उवसग्गहर जैसी कृतियों का नाम जिनमें प्रस्थापित रूप से गाथा क्रमांक में वैविध्य मिलता है उन्हें गाथासूचक शब्दों के साथ दिया गया है. अर्थात् कृति नाम के बाद कुल गाथा की संख्या का उल्लेख किया गया है. जैसे- उवसग्गहरं स्तोत्र (गाथा-५), उवसग्गहरं स्तोत्र (गाथा-११) इत्यादि. २. ऋषिमंडलस्तोत्र जैसी कृतियों में कृतिनाम के बाद लघु/बृहत् का प्रयोग किया गया है. जैसे- ऋषिमंडल स्तोत्र - लघु/बृहत् इत्यादि. गाथांक संख्या ६० व इस संख्या के समीपवर्ती गाथा परिमाण वाला ऋषिमंडल लघु व १०० व इसके आसपास की गाथा परिमाण वाला ऋषिमंडल बृहत् नाम से प्रविष्ट किया गया है. ३. अजितशांति व बृहत्शांति में भी भिन्नता दर्शाने हेतु कृतिनाम में खरतर०/तपा० आदि का प्रयोग हुआ है. जैसे अजितशांति - तपा०, अजितशांति - खरतर० अमुक संयोगों में एक ही कृति, विभिन्न, प्रतों में विविध कर्ताओं के नाम से प्राप्त हुई है उन कृतियों को भी एकाधिक आवृत्तियाँ उपलब्ध कर्तानाम से ही गृहित की गई हैं. तीर्थंकरों, ऐतिहासिक पुरुषों व तीर्थों आदि के कई बार अनेक नाम मिलते हैं. वहाँ पर जहाँ संभव था वहाँ एकरूपता हेतु निम्नोक्त स्थिर नामों के ही उपयोग का आग्रह रखा गया है. For Private And Personal Use Only
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
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