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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आयंबिलतप सज्झाय. ज्ञानपंचमीतप स्तवन इत्यादि. १०. देववंदन इत्यादि में 'चातुर्मासिक' के स्थान पर 'चीमासी' शब्द रखा गया है. किन्तु व्याख्यान में 'चातुर्मासिक' शब्द ही रखा गया है. जैसे- चौमासी देववंदन / चातुर्मासिक व्याख्यान.. www.kobatirth.org ११. समकित के स्थान पर सम्यक्त्व किया गया है. जैसे- सम्यक्त्व सज्झाय. अपवाद:- समकितना सडसठ बोलनी सज्झाय में यथावत् ही लिखा गया है. १२. विजयहीरसूरि विजयलक्ष्मीसूरि जैसे नाम वाली कृतियों में विद्वान का मूल नाम दिया गया है. यह नियम कृतिनाम तथा विद्वान दोनों हेतु हैं. जैसे- हीरविजयसूरि भास. १३. औपदेशिक कृतियों में प्रतिलेखक के द्वारा उपदेश हितोपदेश, शिखामण इत्यादि नामकरण किया गया हो तब ऐसे सभी नामों के स्थान पर औपदेशिक पद, औपदेशिक सज्झाय इत्यादि नाम एकरूपता हेतु दिया गया है. जब कि प्रत, पेटांक नाम प्रत में यथोपलब्ध दिए गए हैं. गोडीजी गौतम १४. २४ दंडक ३० बोल विचार १४ गुणस्थानक ४१ द्वार १८२४१२० इरियावही भेद इत्यादि नामों में संख्यावाचक शब्दों को एकरूपता हेतु यथाशक्य अंकों में ही लिखा गया है. जीरावला दीपावली शत्रुंजयतीर्थ शंखेश्वर " १५. कृतियों का नामाभिधान करते समय निम्नलिखित रूप से विविध विकल्पों में से प्रधान नाम को ही लेने का आग्रह रखा गया है. प्रधान नाम अइमुत्ता इरियावही औपदेशिक सम्मेतशिखर साधारणजिन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतों में मिलने वाले वैकल्पिक नाम अतिमुक्तक, अइमुत्तो, अतिमुक्त, एमंता, ऐमंता, इर्यापथिकी, ईर्यापथिकि, इरियावहिया, इरीयावही / हि, ईरीयावही / हि, ईरियावही / हि. आत्माप्रबोध, आत्मासंयम, आत्मोपदेश, उपदेश, उपदेशक, काया उपदेश, जीवहितशिक्षा, जीवोपदेश, प्रतिबोध, वृथा संसार, शिखामण, सिखामण, हितशिक्षा, हितोपदेश. गउडी, गवडी, गोडिजी, गोडि, गोडी, गौड, गौडी. इन्द्रभूति इन्द्रभूतिगौतम गोतम प्रथमगणधर जीराउला, जीराउलि जीराउली जीरापल्ली, दीवाली, दीपमालि/लीका, दिपावली दीपालिका, दीपालीका, दिपालिका. गिरिराज, विमलाचल, विमलगिरि, सेत्रुंजा, सेत्रुजा, शेत्रुंजा, शेत्रुजा, सिद्धगिरि, सिद्धाचल. शंखपुर, संखपुर, संखेसर, शंखेसर, संखेश्वर. समेतशि/ शीखर, समेतसिखर, समेतसीखर सम्मेदशिखर, + गिरि. सामान्यजिन " . · भण, स्थंभण. थूलभद्र, थुलिभद्द, थुली/ लिभद्द, थूलीभद्द, स्थूलभद्र, स्थुलिभद्र, स्थूळभद्र स्थंभन स्थूलभद्र (विस्तृत सूची का यह एक अंश मात्र है.) १६. नाम में 'थुई' शब्द की जगह 'स्तुति' शब्द सर्वत्र रखा गया है जैसे- आदिजिन स्तुति (आदिजिन थुई), महावीरजिन स्तुति (महावीरजिन थुई). इसी तरह अन्य भी समझें. १७. कृति मुख्यनाम में तीर्थंकरों के नाम में सर्वत्र तीर्थंकर का स्पष्ट व रूढनाम ले कर उनके पीछे - प्रभु, स्वामी आदि न लगाकर 'जिन' शब्द लगाया गया है ताकि एकरूपता बनी रहे. यथा- ऋषभदेव, युगादिदेव, आदीश्वर, आदेश्वर, प्रथम जिन के लिए आदिजिन नाम ही मुख्यनाम रखा गया है. इसी तरह सुपास के लिए सुपार्श्वजिन; अरिष्टनेमि, रिष्टनेमि, नेम के लिए नेमिजिन; पास, पारस, पारश के लिए पार्श्वजिन वीर, वर्धमान, वर्द्धमान, चरमजिन के लिए महावीर जिन इत्यादि नाम लिए गए है. १८. (कृति / विद्वान) नाम के प्रारंभ में आचार्य - मुनि आदि उपाधि सूचक शब्द, श्री, श्रीमद्, श्रीमती, कुमारी, अथ, सचित्र, 20 For Private And Personal Use Only
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
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