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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३. पेटा कृति की उपयोगिता : ३.१. किसी प्रत में अन्तर्निहित एक या एक से अधिक पेटा कृति / कृतियों को प्रविष्ट करने से सभी प्रकार की कृतियों के विषय में जानकारी मिल पाती है चाहे वह कृति कितनी भी बड़ी हो या छोटी से छोटी (क्वचित् एक श्लोक जितनी भी क्यों न हो. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३.२. ऐसी कृतियों भले ही जिनका आकार छोटा हो लेकिन वे महत्त्वपूर्ण हों तो वे किन-किन हस्तप्रतों में किन पृष्ठों पर हैं इसकी जानकारी शीघ्र ही मिल जाती है. यदि ये प्रविष्टियाँ न की जाएं तो इनकी शोध असम्भव जैसी ही समझनी चाहिए. क्योंकि मानव की स्मरण शक्ति तथा उसको प्राप्त होने वाली सूचनाओं / ज्ञान की एक सीमा है. ४. निम्न संयोगों में पेटाकृतियों को प्रविष्ट नहीं किया गया है. ४.१. प्रत के नीचे प्रतिलेखन श्लोक से भिन्न एक-दो पूर्णतया सामान्य श्लोक हो तो उनका उल्लेख प्रत - नाम में दे दिया गया है. ऐसे श्लोकों की पेटांक प्रविष्टि नहीं की गई है. ४.२. एक ही प्रत में अत्यंत सामान्य फुटकर, अपठनीय अक्षरों में लिखी अतः सूची में नहीं लेने योग्य एक से अधिक कृतियाँ साथ में हों तो ऐसी कृतियों को मिलाकर एक ही पेटांक बनाया गया है. ४.३. पेटा कृति के संभवित नामों को प्रत नाम के ही नियमों के अनुसार भरा गया है. संग्रहात्मक प्रकार के नाम पेटांक में लागू नहीं होते हैं. कृति, प्रत, पेटांक व प्रकाशन नाम की अवधारणा आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की सूचना प्रणाली में किसी भी रचना हस्तप्रत, पेटाकृति या प्रकाशन के एकाधिक नाम से शोध संभव है. ये अपरनाम / उपनाम निम्नोक्त विविध प्रकार के हो सकते हैं. १. तकनीकी नाम : ज्ञानतीर्थ की शब्दावली में प्रत या प्रकाशन में खास नियमानुसार निर्मित प्रत, प्रकाशन, पेटांक में यथार्थरूप से कौन सी कृतियाँ समाविष्ट है इसकी सही स्पष्टता हेतु 'सह'; 'व'; ','; 'का, के, की' (षष्ठी विभक्ती) से युक्त नामों को तकनीकी नाम से संबोधित किया गया है. यह नाम प्रत या प्रकाशन नाम हेतु तथा पेटांक वाला मुद्दा होने पर पेटांक नाम में स्वीकार्य होगा. 'B' व उससे आगे के स्तर की टीकादि कृतियों के नाम में '-' व 'का, के की' (षष्ठी विभक्ति) के प्रयोग से यह स्पष्ट किया जाता हैं कि प्रस्तुत कृति अपनी 'मुल' कृति तक की कृतियाँ के साथ किन स्वरूप संबंधों से जुडी हुई है. यह नाम प्रकार संभवतः केवल यहीं पर प्रयुक्त हुआ आपको विदित होगा. इस प्रकार के नाम द्वारा कृति की बहुत कुछ बातें स्वयमेव ही नाम मात्र से स्पष्ट हो जाती है. २. सामान्य निर्मित नाम 'पद' आदि सामान्य कृतियों का निश्चित नाम न मिल पाने पर विवेकाधीन व नियमाधीन कृति पार्श्वजिन स्तवन, औपदेशिक पद का स्पष्ट परिचय करवानेवाला सामान्य नाम बनाया जाता है. जैसे ३. कर्ता प्रदत्त मुख्य नाम : यह कृति का मुख्यनाम होता है. इसके द्वारा कृति सामान्यतः जानी जाती है. सामान्यतः इसका उल्लेख कर्ता स्वयं कृति के आद्य या अंत भाग में किया करता है. अपवाद रूप संयोगों में कर्ताप्रदत्तनाम मुख्यनाम न बन कर अन्य कोई नाम मुख्यनाम के रूप में प्रस्थापित हो जाता है. और कर्ताप्रदत्त नाम उपनाम बन जाता है. ४. कर्ता प्रदत्त उपनाम ( अपरनाम ) : कर्ता स्वयं कृति को कई बार एकाधिक नामों से स्वयं की ही कृति में संबोधित करता है, ऐसे में मुख्य भिन्न सभी नाम कृति के उपनाम के रूप में जाने जाएँगे... ५. रूढ़ या प्रचलित अन्य नाम : वाचकों, प्रतिलेखकों द्वारा कृति की किसी विशिष्टता के कारण दिए गये लोक में रूढ़िगत नाम इस श्रेणी में रखें गये हैं. ये भी एक तरह से उपनाम ही हैं निम्नलिखित विशिष्टताओं के कारण कृति के रूढ नाम बन सकते हैं. १. इसके परिमाण - कद के आधार पर यथा लघु, मध्यम, बृहत्. २. आदिवाक्य के आधार पर जैसे वृंदारुवृत्ति, दोघट्टी वृत्ति, लोगस्स सूत्र. ३. लोक बोली के कारण अपभ्रंश होने से यथा अइमत्ता हेतु एमंता रास. 18 For Private And Personal Use Only
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
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