SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir २०. प्रवचन : सामान्यतः मूल कृतियों पर होने वाले प्रवचनों, व्याख्यानों के संकलनों हेतु यह स्वरूप तय किया गया है. इनके अलावा भी कुछ और स्वरूप निर्धारित किए गये हैं, जो कि प्रकाशित आधुनिक कृतियों में ही मिलते हैं. इनका परिचय यहाँ प्रस्तुत न होने से नहीं दिया गया है. टबार्थ, बालावबोध, अवचूरि, अवचूर्णि, टिप्पण, अंतर्वाच्य जैसी कृतियाँ प्रस्थापित एवं प्रतिलेखक की एक तरह से व्यक्तिगत दोनों ही प्रकार की मिलती है. प्रस्थापित कृति की प्रायः एक जैसी अनेक नकलें मिलती हैं. जबकि व्यक्तिगत प्रकार की कृतियाँ यद्यपि सामान्यतः किसी प्रस्थापित कृति के ही आधार से होती हैं परंतु लेखक/प्रतिलेखक उसकी भाषा, प्रस्तुति, व विवेचन विस्तार की सीमा अपनी अनुकूलता से रखता था. कल्पसूत्र के टबार्थ व बालावबोधों में व्यक्तिगत कृति की यह प्रवृत्ति प्रचुरता से मिलती है. एक ही रूढ़ मंगलाचरण से प्रारंभ होनेवाली अनेक प्रतों में मूल के विवरण में अत्यंत भिन्नता मिलती है. कई बार एक ही स्थिर कृति जो मारूगूर्जर भाषा की होती है, विभिन्न प्रतों में उसकी भाषा में इस प्रवृत्ति के चलते भी बड़ा फर्क पाया जाता है उत्तरी राजस्थानी, दक्षिणी राजस्थानी, उत्तरी गुजराती आदि क्षेत्रकृत व कालकृत अनेक बोलीभेदों की असर उस कृति की विविध प्रतों में दिखाई देती हैं. भाषा परिवर्तन की यह असर स्तवन, सज्झाय, रास आदि देशी भाषा की कृतियों में भी व्यापकरूप से देखने में आती है. कृति व उसके स्वरूपों का यहाँ पर आवश्यक सामान्य विवरण ही दिया गया है. विशेष विस्तार से विवरण तो द्वितीय कृति माहिती विभाग के सूची पत्रों में देने की भावना हैं. पेटा कृति की अवधारणा जब एक ही हस्तप्रत में एकाधिक स्वतंत्र कृतियाँ या मिश्रित कृति समूह ('सह' सूचित) क्रमशः विभिन्न पृष्ठ-अवधियों पर हो तो ऐसी कृति या मिश्रित कृति समूह की माहिती श्री जौहरीमलजी पारख की विभावना के अनुसार पेटा कृति के रूप में ली गई हैं. इन प्रत्येक कृति या मिश्रित कृति परिवार (सह वाली कृतियों) हेतु एक स्वतंत्र पेटा अंक दिया है. यथा- 'भक्तामर स्तोत्र सह टीका, मूल का अनुवाद व टीका का अनुवाद' इस प्रकार भक्तामर के परिवार की उपलब्ध अनेक कृतियों में से चार कृतियाँ यहाँ मिश्रित रूप से एक ही प्रत में लिखी गई हैं. अर्थात् भक्तामर का प्रथम काव्य, मूल का अर्थ, टीका व टीका का अर्थ फिर दूसरा काव्य, मूल का अर्थ, टीका व टीका का अर्थ उसके बाद तीसरा श्लोक एवं उसकी टीका आदि... इसी तरह श्लोक ४४ पर्यंत होते है. इस तरह चारों कृतियाँ मिश्रित रूप से चलती हैं, अतः इन चारों को एक ही पेटांक में समाविष्ट किया गया है. फिर इसी तरह कल्याणमंदिर हो तो उसका दूसरा पेटांक बनेगा. १. किसी भी प्रत में पेटा कृतियाँ निम्न संयोगों में पायी जाती हैं : १.१. हस्तप्रत में स्तवन, स्तोत्र, पूजा, देववंदन आदि का संग्रह हो. १.२. हस्तप्रत मूलतः किसी एक प्रधान कृति/मिश्रित कृति समूह हेतु ही हो लेकिन यदि उसके प्रारंभ या अंत में अन्य एकाधिक कृतियाँ/मिश्रित कृतियाँ भी शामिल कर दी गई हो. १.३. प्रथम पूरा मूल हो, बाद के पृष्ठों में उसी की टीका हो तथा उसके बाद के पृष्ठों में अनुवाद हो. ऐसे में ये सब एक ही कृति परिवार की कृतियाँ होने पर भी प्रत्येक कृति स्वतंत्र पृष्ठों पर क्रमशः अलग-अलग होने से इन्हें मिश्रित कृति समूह नहीं कहा गया है और प्रत्येक को स्वतंत्र पेटा अंक दिया गया है. १.४. हस्तलिखित प्रतों में कई बार सुभाषित संग्रह, औषधादि विषयक सामग्री, तंत्र-मंत्रादि भी लिखे मिलते हैं. इन्हें भी यथोचित पेटांक के रूप में लिया गया है. २. पेटांकों हेतु पृष्ठांकों का लेखन : प्रत की पेटाकृतियों के पत्रांक निम्नलिखित पद्धतियों से लिखे गये हैं. १अ-५आ - प्रथम पत्र की एक तरफ से प्रारंभ हो कर पांचवें पत्र की दूसरी ओर कहीं समाप्त. ५आ-७अ - पांचवें पत्र की दूसरी ओर कहीं से प्रारंभ हो कर सातवें पत्र की प्रथम ओर कहीं पर समाप्त. १० - १०वा - पृष्ठ संपूर्ण ११-१५ अ- ११वे पृष्ठ संपूर्ण से पंद्रहवें पृष्ठ की पहली तरफ तक. 17 For Private And Personal Use Only
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy