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________________ Jain Education International प्रस्तावना शिल्प एवं स्थापत्य की तरह ही हस्तप्रतें भी हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं । हमारे पूर्वज महामनीषियों के ज्ञान का संग्रह हस्तप्रतों में उपलब्ध होता है । यदि हमारे पास इन हस्तप्रतों का संग्रह न होता तो हम अपनी इस गौरवपूर्ण विरासत को जगत के सामने कैसे रख पाते ? आज पूरे संसार में भारत देश का गौरवपूर्ण स्थान है उसमें एक कारण हमारी प्राचीन संस्कृति एवं महत्त्वपूर्ण ज्ञानराशि भी है। जैन धर्म में तो ज्ञान की महिमा अद्भुत रूप से वर्णित की गई है। जैन परंपरा में कहा गया है कि मानव जीवन को इस असार संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए दो ही महत्त्वपूर्ण साधन हैं एक जिन-प्रतिमा और दूसरा जिन-आगम । अर्थात् भक्ति एवं ज्ञान ही संसार-समुद्र से पार होने का उपाय है। गीता मे भी भक्ति, ज्ञान और कर्म का माहत्म्य बताया गया है । इस प्रकार प्रायः दर्शाया गया है। जैन परंपरा में ज्ञान- पंचमी एवं श्रुत पंचमी जैसे विशिष्ट अनुष्ठान भी मनाए जाते हैं । इसी कारण ग्रंथ निर्माण की प्रक्रिया अविरत रूपसे चली आ रही है। आज भी ग्रंथ लेखन की प्रक्रिया चालू है। जैन धर्म के पास अपार ग्रंथ समृद्धि उपलब्ध है और उसमें अनेक विषयों के ग्रंथ उपलब्ध होते हैं । - सभी धर्मों में ज्ञान का महत्त्व इस विषय में पूर्व में मुनिश्री पुण्यविजयजी ने ज्ञान भंडारों के संरक्षण एवं संमार्जन का राष्ट्रव्यापी कार्य आरंभ किया था। उन्होंने पाटण, खंभात, जैसलमेर और अहमदाबाद के अनेक ग्रंथभंडारों, जिनकी स्थिति अत्यंत दयनीय थी, को सुव्यवस्थित करवाया । उन्होंने एक-एक ग्रंथ को सुव्यवस्थित करके उनकी सूचि तैयार करके प्रकाशित की। स्वयं उनके पास भी एक विशाल संग्रह था। उस संग्रह की सुरक्षा एवं उपयोग के लिये उन्होनें श्रेष्ठोवर्य श्री कस्तूरभाई लालभाई को एक शोध संस्थान निर्माण करने की प्रेरणा दी । शेठश्री ने पूज्यश्री पुण्यविजयजी की प्रेरणा को सहर्ष स्वीकार कर अपने पिताजी की पुण्य स्मृति में एक शोध संस्थान का प्रारंभ किया जिसमें मुनिश्री पुण्यविजयजी ने अपने हस्तप्रत-संग्रह को विद्वानों एवं जिज्ञासुओं के लिए सप्रेम भेंट किया । इस प्रकार लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर का प्रारंभ हुआ । इस संस्थान में शनै: शनैः हस्तप्रत संग्रह बढ़ता गया और आज संस्थान के पास करीब पचहत्तर हजार हस्तप्रतों का समृद्ध संग्रह है । प्रस्तुत संग्रह के चार भाग इस संस्थान के द्वारा पूर्व में प्रकाशित हो चुके हैं । यह पांचवां भाग है, इसमें हस्तप्रतों का विस्तृत परिचय दिया गया है । कोलम - १ में क्रमांक दिए गए हैं। इस भाग में कुल ६०१०८ कृतियों का सूचिकरण किया गया है जिसे एक साथ क्रमसंख्या से सूचित किया गया है । For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018021
Book TitleCatalogue of Manuscripts L D Institute of Indology Collection Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages818
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size15 MB
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