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________________ 30 - प्रस्तावना - शिलालेख इहलोके धनं चायुर्वृद्धि कीर्ति सुतं सुखं । परत्र देववेभव्यं परमां शिवसंपदा ।। ३३ ।। षड्भिः कुलकं ।। भद्रं कुरुष्व परिपालय सर्वविश्व विघ्नं हरस्व विपुलां कमलां प्रयच्छ । जेवातृकार्कसुरसिद्धजलानि यावत् स्थैर्य भजस्व हि सुपार्श्वज(जि)नस्य नित्यं ।। ३४ ।।। रविचंद्रधरासुतसौम्यगुरुशनसः शनिराहुशिखिप्रमुखा दिविगाः । दिविगास्सततं मम हर्षयुताः प्रदिशंत्वयि भद्रभर भवतां ।। ३५ ।। क्षेत्राधीश्वरयोगिनीजनगणैः सिद्धैः समाराधितो ध्यातो देवगणैस्तथा मुनिगणैः कार्यार्थिभिः सर्वदा । साम्राज्यार्थकरश्चतुर्भुजधरः खड्गादिशौर्वरः । श्रीसंघस्य सुखं ददातु सततं श्रीमाणिभद्रो द्रुतं ।। ३६ ।। क्षोण्यां चाखिलदेवता गजमुखाः क्षेत्राधिपा भैरवा योगिन्यो बटुकाच सिद्ध....तरपैशाचकाचेटकाः । अन्ये भूचरखेचरामृत(ता)पगा वेतालभूतग्रहाः सानंदाः प्रदिशंतु मंगलवरं संघस्य मे सत्वरं ।। ३७ ।। यासां संस्मरणाद् भवंति सकलाः संपद्गणा देहीनां याः सर्वा दु:(?)खं दिनास्त्रिजगतामाधारभूताच याः । संघस्याप्यखिलस्य दुःखनिवहं कुर्वतु दूरं सदा श्रीमच्छासनदेवताः सुनयनाः संपूर्णचंद्राननाः ।। ३८ ।। उद्यच्छारदचंद्रास्या सूर्यकांतिसमप्रभा । सुखाय मे च संघस्य भूयाच्छीशांतिदेवता ।। ३९ ।। यावद्विष्णुपदं ध्रुवस्थितियुतं वर्वत्ति तेजोनिधी प्रतियाँ भिन्न भिन्न शानभंडारोमें थी उनके हस्तलिखित सूचिपत्र यावचंद्रदिवाकरौ दिविसरो यावद्धरित्रीधरौ । भी हर एक भंडारके भिन्न भिन्न थे किन्तु आज से १७ वर्ष यावत्संति धरांबुवतिखमरुद्धाराधरामंडलं पूर्व ईसवी सन् १९८३ में जोधपुरके श्री जौहरीमलजी पारखने विषयवार तथा नामवार ग्रंथ ढुंढनेमें अनुकूलता रहे इसलिए यावत्तावदिदं प्रमोदभरदं चैत्यं चिरं तिष्ठतु ।। ४० ॥ सभी ज्ञानभंडारोंके कागज पर लिखे हस्तलिखित ग्रंथोंको एकत्रित येषां लग्नं द्रव्यं यैश्चयं कारिता प्रतिष्ठा । कर दिये । नंबर बदल दिये । कईके नाम बदल दिये । तेषां कुलस्य नित्यं वृद्धिर्भूयाद्धनयशसोः ।। ४१ ।। कई अलग अलग नंबर पर रहे ग्रंथों को एकत्रित कर दिये सुवृष्टास्संतु जलदाः सुवातास्संतु वायवः । और कई एक नंबरके ग्रंथको अनेक विभागमें बाँट दिये और पुराने नंबर भी मिटा दिये । इतना करने के बाद वे उन्हें बहुधान्यास्तु पृथिवी सुस्थितोऽस्तु जनोऽखिलः ।। ४२ ।। अलमारीयोंमें व्यवस्थित ढंगसे रख नहीं पाये और कपडोंके सर्वेऽपि संतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः । लगभग १०० जितने बस्तोंमें अस्तव्यस्त अवस्थामें लगभग ५००० सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिदुःखभाग् भवेत् ।। ४३ ।। आसपासकी संख्याके छोटे बडे ग्रंथ जैसलमेरमें उपर किलेके नगविजयेन मयेषा कृता प्रतिष्ठाप्रशस्तिरवशेषा । भंडारमें एक कमरेमें रखे थे । यह काम पूर्ण करनेसे पहले भूयाद्वृद्धिरशेषा संघस्य मे शस्यशुभरेखा ।। ४४ ।। उनका स्वर्गवास हो गया था । इससे पूराने सूचिपत्रसे एक भी ग्रंथ मिले ऐसी स्थिति नहीं थी और नये दिये गये क्रमांकों के विनयनतकोटिकोट्यमरनरभरसेविताहिकमलस्य । मुताबिक ग्रंथोंको व्यवस्थित ढंगसे जमा नहीं पाये, इस तरह श्रीमत्संखेश्वरस्य............. ।। ४५ ।। कागजकी हस्तप्रतियोंके सभी भंडार अस्तव्यस्त हो गये | बस्तोंमें संवत् १८६९ वर्षे वैशाखसुदि ३ दिने दीमक लगी, जंतु पड़े । किले के नीचे जैसलमेर शहरमें श्रीसंघेन प्रतिष्ठा कारिता ।। तपागच्छके ज्ञानभंडारके कइ बंडलों में दीमक लग गई । लगभग ३०-४० ग्रंथ निकम्मे हो चुके । यदि हम समयपर (यहाँ सी. डी. दलाल के सूचीपत्रसे उद्धृत लेख समाप्त होते है । ) वहाँ नहीं पहुंचते तो तपागच्छका भंडार तो पूरा नष्ट हो जाता, अभी मूल बात पर आते है - ऐसी स्थिति थी | इन सभी ग्रंथोंके मूल भंडारका नाम, नंबर, आ प्र.मुनिराजश्रीपुण्यविजयजी महाराजने जिनभद्रसूरि शानभंडारको और ग्रंथनाम ढुंढना और मंडारके पुराने सूचिपत्रके अनुसार व्यवस्थित करने के कुछ समय बाद विक्रम सं० २०१८ ईसवी सन् उनको ढंगसे रखनेका काम अत्यंत अत्यंत दुष्कर था । हम १९६१ में जैन ट्रस्ट गठित हुआ । उसके पूर्व सभी भंडार वे वे गच्छ या सब दिन-रात इसी काममें जुटे । हम सब साधु, दस साध्वीजीयाँ ओसवाल पंच आदिके कब्जेमें, किलेमें तथा जैसलमेर शहरमें उन उन तथा कई श्रावक महिनों तक इसी काममें जुटनेके बावजूद गच्छोंके उपाश्रय या मकानोंमें ये भंडार थे । जैन ट्रस्ट का गठन होने | कई थोडे ग्रंथ पुराने सूचिपत्र अनुसार इस ग्रंथोंकी राशीमें के बाद जैसलमेर के सभी शानभंडार जन ट्रस्टको साप गये। | से हमें नहीं मिले । और कई नये नामके ग्रंथ मिले जिसे उसके बाद ताडपत्रीय ज्ञानभंडार तो जितना व्यवस्थित | हमने तपागच्छके ग्रंथोंको तपागच्छकी पुरानी प्रविष्टयोंमें नयी था वैसे ही आज भी व्यवस्थित है । परंतु कागजकी हस्तलिखित | प्रविष्टियाँ (तपागच्छ मंडार कं १२७९ से कं.१३३७ तक) जोडकर Jain Education International For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018010
Book TitleJesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year2000
Total Pages665
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size14 MB
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