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________________ सज्झाय 288 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय घरत्तिय अडरत्ते, अइ उवओगा भवे दुण्णि / / 1366 / / पडिजग्गियम्मि पढमे, वीयविवज्जा हवंति तिन्नेव। पाओसिय वेरत्तिय, अइउवओगा उदुण्णि भवे / / 1367 / / वेरत्तिए अगहिए सेसेसु तिसु गहिएसु तिषिण, अड्डरत्तिए वा अगहिए तिपिण, दोषिण कह? उच्यते, पाउसियअडरत्तिएसु गहिएसु सेसेसु दोणि भवे / अहवा-पाउसियवेरत्तिए गहिए य दोन्नि / अहवापाउसियपाभाइएसु अगहिएसु दोणि, एत्थ विकप्पे पाउसिए चेव अणुवहएण उवओगओ सुपडियग्गिएण सव्वकालेण पढति न दोसो। अहवा-वेरत्तिए अड्डरत्तिए अगहिए दोगिण / अहवा-अड्डरत्तियपाभाइयगहिएसुदोपिण। अहवा-वेरत्तियपाभाइएसुगहिएसु. जदा एक्का तदा अण्णतरं गेण्हइ / कालचउक्ककारणा इमे कालचउक्के गहण उस्सग्गविही चेव।अहवा-पाओसिएगहिए उवहए अड्डरतं घेत्तुं सज्झायं करेंति। पाभाइओ दिवसट्टा घेत्तव्यो चेव / एवं कालचउक्क दिट्ट, अणुवहए पाओसिए सुपडियग्गिए सव्वं राई पढति। अडरत्तिएण वि वेरत्तिएण पदति। वेरत्तिएण वि अणुवहएण सुपडियग्गिएण पाभाइय असुद्धे उद्दिट्ट दिवसओ वि पढेति / कालचउक्के अग्गहणकारणा इमे-पाउसियं न गिण्हति असिवादिकारणओ न सुज्झति वा, अड्डरत्तियं न गिण्हंति, कारणतो ण सुज्झति वा, पाओसिएण वा सुपडियग्गि-एण पढति न गेण्हति। वेरत्तिय कारणआ न गिण्हति न सुज्झइ वा। पाओसिय अड्डरत्तेण वा पदति, तिन्नि वा णो गेहति / पाभाइयं कारणओ न गिण्हइ, न सुज्झइ वा, वेरत्तिएणेव दिवसओ पढ़ति। इयाणिं पाभाइयकालग्गहणविहिं पत्तेयं भणामिपाभाइयकालम्भिउ, संचिक्खे तिन्नि छीयरुन्नाणि। परवयणे खरमाई, पावासुय एवमादीणि।।१३६८|| व्याख्या त्वस्या भाष्यकारः स्वयमेव करिष्यति / तत्थ पाभाइयम्मि काले गहणविही य, तत्थ गहणविही इमानवकालवेलसेसे, उवग्गहियअट्ठया पडिक्कमई। नपडिक्कमई वेगो, नववारहए धुवमसज्झाओ॥२२४|| दिवसओ सज्झायविरहियाण देसादिकहासंभववजणट्टा मेहावी-तराण य पलिभंगवजणट्टा, एवं सव्वेसिमणुग्गहट्ठा नवकालम्गहणकाला पाभाइय अणुण्णाया। अओ नवकालग्गहणवेलाहिं सेसाहिं पाभाइयकालगाही कालस्स पडिक्कमति। सेसा वितं वेलं पडिक्कमति वा न वा। एगो नियमा न पडिक्कमइ, जइ छीयरु-दादिहिं न सुज्झइ तो सो चेव वेरत्तिओ सुपडियग्गिओ होहिति त्ति सो वि पडिक्कतेमु गुरुणो कालं निवेदित्ता अणुदिए सूरिएकालस्स पडिक्कमति। जइघेप्पंतो नववारे उवहओ कालो तो नजइ धुवमसज्झाइयमत्थि ति न करेंति सज्झाय / नववारगहणविही इमो-'सचिक्खे तिण्णि छीतरुण्णाणि' ति अस्य व्याख्याइकिक्क तिन्नि वारे, छीयाइहयम्मि गिण्हई कालं। चोएइ खरो बारस, अणिट्ठविसए अकालवहो / / 225 / / एक्कस्स गिण्हओ छीयरुदादिहए संचिक्ख इति ग्रहणाद्विरमतीत्यर्थः, पुणो गिण्हइ, एवं तिण्णि वारा तओ परं अण्णो अण्णम्मि थंडिले तिण्णि वाराउ,तस्स वि उवहए अण्णो अण्णम्मि थंडिले तिणि वारा तिण्हं असई दोषिण जणा णव वाराओ पूरेइ। दोण्ह वि असती एएक्को चेव णव वाराओ पूरेइ। थंडिलेसु वि अववाओ, तिसुदोसुवा एक्कमि वा गिण्हति। 'परवयणे खरमाई' अस्य व्याख्या 'चोएइ खरो पच्छद्धं' चोदक आहजदि रुदति मणिट्टे कालवहो ततो खरेण रडिते वारहवरिसे उवहमउ, अण्णेसु वि अणिट्टइंदिय विसएसु एवं चेव कालवहो भवतु? आचार्य आहचोअग माणुसणिढेकालवहो सेसगाण उपहारो। पावासुआइ पुचि, पन्नवणमणिच्छ उग्घाडे॥२२६।। माणुससरे अणिढे कालवहो 'सेसग' त्ति-तिरिया तेसिं जइ अणि पहारसद्दो सुव्वइतो कालबंधो। 'पावासिय' ति-मूलगाथायां योऽवयवः अस्य व्याख्या 'पावासुयाय' पच्छद्धं, जइ पाभाइयकालग्गहणवेलाए पावासियभज्जा पइणो गुणे संभरंति दिवे दिवे रोएति, रुवणवेलाए पुव्वयरो कालो घेत्तव्यो। अहवा-सा वि पच्चूसे रोवेज्जा ताहे दिवा गंतु पण्णविजइ, पण्णवणमनिच्छाए उग्धाडणकाउस्सग्गो कीरइ। "एवमादीणि' ति अस्यावयस्य व्याख्यावीसरसहरुअंते, अव्वत्तगडिभगम्मिमा गिण्हे। गोसे दरपट्ठविए, छीए छीए तिगी पेहे॥२२७।। अच्चायासेण रुयंत वीरसं भन्नइातं उवहणए, जं पुण महुरसह घोलमाण चतंन उवहणति, जावमजंपिरंतामव्वत्तं तं अप्पेण विवीसरेण उवहणइ। महंत उस्सुंभरोवणेण उवहणइ, पाभाइयकालग्गहणविही गया। इयाणि पाभाइयपट्टवणविही-'गोसे दर' पच्छर्छ, ‘गोसि' त्ति-उदितमादिहो, दिसालोय करेत्ता पट्टवेति। 'दरपट्टविए' त्ति अद्धपट्टविए जइ छीतादिगा भग पट्टवणं अण्णो दिसालोय करेत्ता तत्थव पटवेति / एवं ततियवाराए। दिसावलीयकरणे इम कारणआइन्न पिसियमहिया, पेहित्ता तिन्नि तिण्णि ठाणाई। नववारहए काले, हउ त्ति पढमाइन पढंति॥१३६६।। 'आइण्णा पिसिय'त्ति-आइण्णं–पोग्गलं तं कागभादीहिं आणीय हाजा. महिया वा पडिउमारद्धा, एवमाई एगट्टाणे ततोवारा उवहए हत्थसयबाहि अण्णं ठाणं गंतु पेहंति पडिलेहें ति / पट्टविति त्ति वुत्तं भवति। तत्थ दि पुवुत्तविहिणा तिन्निवारा पट्ठति। एवं बिति-यठाणे वि असुद्धेतओ चि हत्थसयं अन्नं ठाणं गंतु तिन्नि वारा पुव्युत्तविहाणेण पट्टवेति। जइ सुद्धं तो करेंति सज्झायं / नववारहए खुताइणा णियमा अहो, (ततो) पढमाए पोरिसीए न करेंति सज्झायमिति गाथार्थः / पट्ठवियम्मि सिलोगे,छीए पडिलेह तिन्नि अन्नत्थ।
SR No.016149
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1276
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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