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________________ सज्झाय 251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय अर्थत्यानन्तयें . सूरत्थमणाणंतरमेव आवस्सय करेंति / पुनर्विशेषणे, दुविहमावर-रागकरण विसेसेइ-निव्वाघाय, वाघाइमंच। जदि निव्वाघाय ततो सध्बे गुरुसहिया आवस्सयं करेंति। अह गुरु सड्डेसुधम्म कहें ति तो आवस्सगरस साहहिं राह करणिजस्स वाधाओ भवइ / जम्मि वा काले तंकरणिज्जत-हासेतस्स वाघाओ भण्णइ तओ गुरुं निसिज्जहरो य पच्छा चरित्तातियारजाणणट्टा काउस्सग टाहिति। सेसाउजहासत्तिं, आपुच्छित्ताण ठंति सट्ठाणे। सुत्तत्थकरणहेउ, आयरिऍठियम्मि देवसियं / / 1366|| रोसा साहू गुरूं आपुच्छित्ता गुरुगणस्स मग्गओं आसन्ने दुरै आधाराइणियाए जं जस्स ठाणं तं सट्टाणं / तत्थ पडिक्कमंताण इमा ठयणा / गुरू पच्छा ठायंतो मज्झेण गंतुं सट्टाणे ठायइ, जे वामओ ते अणंतरसवेण गंतु सट्टाणे ठायन्ति / जे दाहिणओ अणंतरसवेण गतुं टायति, त थ •णागय टायति सुत्तत्थसरणहेर्छ। तत्थ य पुवामेव ठायंता 'करेमि भंते ! सामाइयमिति' सुत्तं करें ति, पच्छा जाहे गुरू सामाइयं वरतावोसिरानि त्ति भणित्ता ठिया उस्सगं, ताहे देवसियाइयारं चिंतंति। अन्ने भणतिजाहे गुरू सामाइयं करेंति ताहे पुवट्ठिया वि तं सामाइयं करेंति सेसं कंह। जो हुज्ज उ असमत्थो, बालो वुड्डो गिलाणपरितंतो। सो विकहाविरहिओ, अच्छिज्जा निजरापेही।।१३६७।। परिस्संतो पाहुणगादि सो वि सज्झायज्झाणपरो अच्छति। जाहे गुरू टंति ताहे ते वि बालादिया ठायति एएण विहिणा। आवासगं तु काउं, जिणोवइटुंगुरूवएसेणं। तिण्णि थुई पडिलेहा, कालस्सइमा विही तत्थ।।१३६८॥ जिणहिं गणहराण उवइह,ततो परंपरएण जाव अम्हं गुरूवएसेण आगयं, तं काउं-आवरसयं अपणे तिणि थुतीओ करिति / अहवा-एगा एगसिलोगिया बितिया बिसिलोइया, ततिया (त) तियसिलोगिया / तसिं समत्तीए फालपडिलेहणविही कायव्वा। अचउताव विही, इमो कालभेओ ताव वुच्चइदुविहो उ होइ कालो, वाघाइम एतरोय नायव्वो। वाघाताँ घंघसालाए,घट्टणं सडकहणं वा॥१३६६।। पुव्बद्ध कंठं / पच्छद्धस्स व्याख्या-जा अतिरित्ता वसही कप्प-- डिगसेविया य सा घंधसाला / ताए अतिताणं घट्टणपडणाइ वाघायदोसा, सङ्घकहणेण य वेलाइक्कमणदोसो त्ति / एवमादि। वाघाए तइओ सिं, दिजइ तस्सेवते निवेएंति। इयरे पुच्छंतिदुवे, जोगं कालस्स घेच्छामो।।१३७०।। तम्मिवाघातिमे दोषिण जे कालपडियरगा ते निग्गच्छति। तेसिंततिओ उवज्झायादि दिजइ। ते कालग्गाहिणो आपुच्छसंदिसावणकालपवेयणं च सव्वं तरसेव करें ति। एत्थ गंडगदिट्टतो न भवइ। इयरे उवउत्ता चिट्ठति / सुद्धे काले तत्थेव उवज्झायस्स पवेएति ताहे दंडधरो बाहि कालपडिघरओ चिट्टइ। इयरे दुइगा वि अंतोपविसंति, ताहे नीतिदंडधरो अतीति। तेण पट्टविए सज्झाय करें ति। निव्वाघाए पच्छद्धं, अस्यार्थःआपुच्छण किइकम्मे, आवासिय पडियरिय वाघाते। इंदियदिसाय तारा, वासमसज्झाइयं चेव।।१३७१।। निव्याघात दोन्नि जणा गुरुं आपुच्छति-काल घेच्छामो / गुरुणा अणुण्णाया 'कितिकम्म' ति-वंदणं काउं दंडगं घेत्तुं उवउत्ता आवासियमासज्ज करेन्ता पमज्जन्ता य निग्गच्छति / अंतरे य जइ पक्खलति पडति वा वत्थादि वा विलम्गति कितिकम्मादि किंचि वितह करेंति तता कालवाधाओ। इमा कालभूमीपडियरणविही। इंदिएहिं उवउत्ता पडियरति। 'दिसत्ति-जत्थच चउरो वि दिसा दीसंति। उडम्मि जइ तिन्नि तारा दीसति। जइ पुण न उवउत्ता अणिट्ठो वा इदियविसओ 'दिस' ति दिसामोहो दिसाओवा तारगाओ वा न दीसंति वासं वा पडइ। असज्झाइयं वा जाय तो कालवहो त्ति गाथार्थः। किंचजइ पुण गच्छंताणं, छीयं जोइंततो नियत्तेति। निव्वाघाए दोण्णि उ, अच्छंति दिसा निरिक्खंता / / 1372 / / तसिं चेव गुरुसमीया कालभूमी गच्छंताणं अंतरे जइ छीत जोति वा फुसइ तो नित्तति / एवमाइकारणेहिं अव्वाहया ते दो वि निव्वाघाएण कालभूमि गया / संडासगादिविहीए पमञ्जित्ता निसन्ना उद्घट्टिया वा एक्के को दो दिसाओ निरिक्खंतो अच्छा त्ति गाथार्थः। कि च-तत्थ कालभूमीए ठियासज्झायमचिंतंता, कणगंदळूण पमिनियत्तंति। पत्ते य दंडधारी, मा बोलं गंडए उवमा॥१३७३।। तत्थ सज्झाय (अ) करेंता अच्छन्ति, कालवेलं च पडियरेइ / जइ गिम्हे तिण्णि सिसिरे पंच वासासु सत्त कणगारंति (पडति ) पेच्छेज तहा विनियत्तति। अह निव्वाघाएणं पत्ता कालग्गहणवेला ताहे जो दंडधारी सो अंतो पविसित्ता भणइ-बहुपडिपुण्णा कालवेला मा बोलं करेह, एत्थ गंडगोवमापुचभणिया कज्जइ ति गाथार्थः। आघोसिए बहूहिं, सुयम्मि सेसेसु निवडए दंडो। अह तं बहूहिँ, न सुयं, दंडिज्जइ गंडओ ताहे / / 1374 / / जहा लोए गामादिदंडगेण आघोसिएबहूहिं सुए थेवेहिं असुए गामादिठिउ अकरेंतस्स दंडो भवति। बहूहिँ असुए गंडस्स दंडो भवति। तहा इहं पि उवसहारेयव्व / ततोदडधरे निग्गए कालग्गही उठेइ त्ति गाथार्थः / सो य इमेरिसोपियधम्मो दढधम्मो, संविग्गो चेवऽवञ्जभीरू य।
SR No.016149
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1276
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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