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________________ वत्थ 864 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वत्थ यं वा श्लक्षणं स्थूलं वा यन्मनसो रुच्यते तन्मनोज्ञ चिरन्तनं नाम यदाचार्यपरंपरागतम् ‘दोइ' ति निपातो विकल्पार्थो येन वा तत्प्रदत्तं तस्योपरि महान् स्नेहो, यद्वा-अमुना वस्त्रेण तिष्ठता अहमन्यदपि वस्त्रमेतत्प्रभावादेव लप्स्ये एवमेतैः कारणैः भृशमत्यर्थ कुसत्त्वस्तुच्छवृत्तिबलो मूर्छति मूर्छा तस्य न विवक्षितं वस्त्रं परिभुत्के / उत्को वस्त्रविषयो विधिः / बृ०३ उ०॥ जे मिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं पडियाणियाणं देयइ देयाणं देयंत वा साइजइ ||vell जे भिक्खू वत्थेणं परं तिण्हं देंति देंतस्स मासगुरुं पच्छित्तं, दिट्ठा एगा पडियाणिया या कारणे पसंगा बहुई उदाहिति तेणिमं सुत्तं भण्णति। पडियाणियाणि तिण्हं, परेण वत्थम्मि देंति जे भिक्खू / पंचण्हं अण्णतरे, सो पावति आणमादीणि // 272 / / कारणे-जाव तिण्णि ताव देया, तिण्हं परतो चउत्था ण देया। जंगियादि पञ्च किण्हवण्णति वा पंच देंतस्स आणादयो दोसा, कारणतो पुण तिण्हं परतो वि दिजा। किं कारणं उच्यते -- "संतासंतसतीए, दुब्बलहीणे अलब्भमाणे वा / / 273 / / " असि० // 27 // " 'सच्छण्णे० // 275 // एताउ गाहाउ "संतासं 180 एह० // 276 // " गाहाजे मिक्खू अविहीए वत्थं सिवई सिव्वंतं वा साइजइ // 10 // दिट्ठा पडियाणिया सा असिव्विया ण भवति एवं सिव्वणं दिटुं. तं पुण काए विहीए, एतेणाभिसंबंधेणिमं सुत्तं-जे भिक्खू अविहीए, वत्थं सिव्वति तस्स मासगुरुं पच्छित्तं। पंचविधम्मि वि वत्थे, दुविधा खलु सिव्वणा तुणातव्वा। अविधोए सिव्वणया, अविधी पुण तत्थिमा होति॥२७७।। दुविहा सिव्वणा-अविधिसिव्वणा, विधिसिव्वणाय। तत्थ अविहिसिव्वणा इमागग्गरदंडिवञ्जित, जालेगसराकसादुखील एका य। गोमुत्तिगा य अविधी, विहिझसकंटायिसरडोय॥२७८|| गग्गरसिव्वणी जहा-संजतीणं, डंडिसिव्वणी जहा गारत्थाणं, जालगसिव्वणी जहा-वरक्खाइसु, एगसरा जहा संजतीणं, पयालणी कसासिप्यणी / णभंगे वा दिजति, दुक्खीला संधिज्जते उ तओ खीला देति, एगखीला एगत्तो देति, गोमुत्ता संधिचंतेइओ एक्कसि वत्थं विंधइ एसा अविधि,विधी झसंकटा सा संधणे भवति एक्कतो वा उक्कुइते संभवति विसरिया। सरडो भण्णतिएगो एगतरीए, अविधिविधीएसु जो उसीवेजा। पंचण्हं एगतरं, सो पावति आणमाईणि // 27 // चउरो ता गाहाओ, अत्थ वि कमेण भविचाउ। दुब्बल दुल्लह वत्थे, अविधिविधीसिव्वणं कुजा॥२८०।। सुत्तत्थपालमंथो जे च पडिलेहाण मज्झति संजमविराह-णा, कारणे पुण विधीए पुच्छा अविधीए वि सीवेजा। जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं फालियगंठियाण करेइ करतं वा साइजइ॥५१॥ जे भिक्खू वत्थे एगमपि फालिगंथि देति दास्स मासगुरुं पच्छित्तं / पचण्हं अण्णतरे, वत्थे जो फालियं छियं देखा। सीवणगंधे मगधी, सो पावति आणमाईणि॥२८१।। गहणं तु अधाकडए, तस्सऽसतीए उ अप्पपरिकम्मे। तस्स सइ सपरिकम्मे, गहणं तु अफालिए होति // 22 // तस्स सति फालितम्मि, गहणं जं एगगंठिणा वज्झी। तस्स सति दुगतिगं पी, तस्स सती तिण्ह वि परेणं // 23 // कंठा। जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं फालियगंठियाण करेइ करतं वासाइजइ॥५२॥ जे भिक्खूवत्थे तिण्ह परं दे (ति) तस्स मासगुरुं आणा-दिणो दोसा। जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठइ गंठंतं वा साइज्जइ / / 13 / / तिण्ह परं फालियाणं, वत्थं जो फालियं तु संसिवे / पचण्हं एगयरे, सो पावति आणमादीणि // 28 // संतासंत." ताओ चेव गाहाओ सव्वाओ कंठाओ वस्त्र-मतञ्जातं न गृहन्ति। जे मिक्खूवत्थं अतिक्षायाएणगाहति गाहंतवासा इज्जइ॥५४|| तं पुण गहणं दुविधं, तज्जातं चेव तह अतजातं / तं एकेक तजा-तंति चतुरो अतज्जातं / / 28 / / जंगमादि एक्कके सामण्णजातीयं एकेक तज्जायं, असामण्ण्णं चउरो अतज्जाता वण्णतो वा तज्जातमतज्जातं तं। जंजारिसयं वत्थं, वत्थं वण्णेण जारिस होति / तारिसतजातेणं, गहणेणं तंगहेतव्वं / / 296|| कंठा। बितियपदमणप्पज्झे,गहेज अवि कोऽविचेव अप्पज्झे। जाणंते वा वि पुणो, असती सरिसस्स दोरस्स // 287|| खित्तादिचित्तो अणप्पवसो सेहो वा अवि कोविओ जाणओ वा गीयत्थो, असति सरिसदोरस्स अतजाएणं गहेजा / नि० चू०१ उ०। (रात्री वस्त्रग्रहणम् उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1072 पृष्ठे निषिद्धम्।) अथातिरित्कहीनद्वारमाह - पेहाऽपेहा दोसा, मारो अहिकरणमेव अतिरित्ते। एए भवंति दोसा, कजविवत्तीय हीणम्मि॥३०॥ अतिरिक्तमुपधिंयदिप्रत्युपेक्षतेतदासूत्रार्थयोर्महान्परिमन्थः। अथन प्रत्युपेक्षतेततउपधिनिष्पन्नम्, एवंप्रेक्षाप्रेक्षयोरपिदोषाः, भारश्चमहान्मार्गेगच्छता भवति / अपरिभोग्वस्य चोपधिधारणे मन्थातिरिक्तदोषा भवन्ति / अथ हीनं
SR No.016148
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1492
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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