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________________ जालगंठिया 1456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाव तार्थद्रयस्य संयोजनेन तयोरेव प्रकर्थमभिधातुमाह - (अन्नमन्न- सामी समोसढे सेणिओ णिग्गओ जालि जहा मेहे तहा गुरूयसंभारियत्ताए त्ति) अन्योऽन्येन गुरूकं यत्संभारिक च तत्तथा जालविनिग्गतो तहेव निक्खंतो जहा मेहो एक्कारस अंगोई तद्भावस्तत्ता तया - (अन्नमनघडात्ताए ति) अन्योऽन्यं घटा अहिज्जति अहिज्जतित्ता गुणरयणतवोकम्मं जहा खंदयस्स एवं० समुदायरचना या तदन्योऽन्यघटं तद्भावस्तत्ता तया - (चिट्टइ त्ति) जाव खंदयस्स वत्तवया सो चेव वायणा आपुच्छतिथेरेहिं सद्धिं आस्ते, इति। भ० 5 श०३ उ०। विपुले तहेव दुरूहति, नवरं सोलम वासाई सामाणि--परियागं जालघरग न०(जालगृहक) जालकान्विते गृहे, ज्ञा० 1 श्रु० 3 अ० पाउणित्ता काले मासे कालं किच्चा उड्डे चंदिमसोहम्मीसाण० जालगृहकाणि गवाक्षयुतानि गृहकाणि। रा०1 जी०। दादिमय- जाव अरणअचुए कप्पे नवयगेविजुयविमाणे पत्थडे उड्ढ दुरवीति जालकप्रायकुडयं यत्रा मध्यव्यवस्थितं वस्तु बहिः- स्थितैर्न चउवत्ता विजए विमाणे देवत्ताए उववण्णे तेणं हेरे भगवओ जालि दृश्यते। ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। औ| अणगारे कालगयं जाणित्तापरिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति जालपंजर न० (जालपञ्जर) गवाक्षे, जालपज्जरणि गवाक्षापर पर्यायाणि। करेंतित्ता पत्तचीवराइ गिण्हति / तहेव उत्तरंति० जाव इमीसे जी० 3 प्रति०। रा०ा जं०। आयरे भंडए भंते! भगवं गोयमे ! जाव एवं खलु देवाणुप्पियाणं जालपगट पुं० (जालप्रकट) ज्वालासमूहे, कल्प०३ क्षण। अंतेवासी जालिनामं अणगारं पगतिभद्दए सेणीआ जालिअण जालविंद न० (जालवृन्द) गवाक्षसमूहे, जी०३ प्रति०। गारे कालगए कहिं उववण्णे एवं खलु गोयमा! मम अंतेवासी जाला स्वी० (ज्वाला) बादरतेजस्कायभेदे, प्रज्ञा०१ पद। "जालाए त्ति तहेव० जाव खंदयस्स कालगए उद्धं चंदिम० जाव विजयविमाणे वा" ज्वाला अनलसंबद्धेति। जी०३ प्रतिका'जाला तु रंधनठिन्ना।" देवत्ताए उववण्णे जालिसमणं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिती ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० ज्वाला अनलसंबद्धा दीपशिखेत्यन्ये। जी०१ पण्णत्ता? गोयमा! वत्तीसं सागरोवमा य ठित्ती पण्णत्ता। से णं प्रति०। ज्वालानाम् अनलसंबद्ध-स्वरूपाणाम्। भ० 14 श० 7 उ०। मंते! ततो देवलोगातो आउक्खएणं कहिं गच्छहित्ति ज्वालाग्निशिखा ठिन्नमूला। स्था०५ टा०३ उ०। ज्वालाछिन्नमूलानङ्गार गच्छहित्ता? गोयमा! महा विदेहे वासे सिज्झिहि त्ति। एवं खलु प्रतिबद्धेति। आचा० 1 श्रु० 1 अ० 4 उ०। ज्वाला ठिन्नमूला जंबू! समणेणं० जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइय-दसाणं पढमस्स ज्वलनशिखैवा उत्त० 36 अ०। हस्तिनापुरवास्तव्यस्य पद्योत्तर वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। अणु०१ वर्ग। नृपतेर्भार्यायाम्, "हत्थिणाउरे तत्थ य पउमुत्तरो राया जाला तस्स अन्तकृदृशाप्रथमवर्गाद्याध्ययनप्रतिवद्धवक्तव्यतावोऽनगादे च। देवी 'ती० 21 कल्पा महापद्मचक्रवर्तिनो मातरि, स०। आव०। तद्वक्तव्यताचन्द्रप्रभजिनस्य शासनदेवतायाम्, "अचुयसंता जाला'' (337) पढपस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अहे पणते? एवं खलु जंबू! तस्याः वर्णको यथा-श्रीचन्द्रप्रभस्य ज्वाला। मतान्तरेण भृकुटिदेवी / तेणं कालेणं तेणं समणेणं वारवती नयरी तीसे जहा पढमे० पीतवर्णा वरालकाख्यजीवविशेषवाहना चतुभुर्जा खङ्ग मुद्ररभूषित- जाव कण्हे वासुदेवे आहेबच्च० जाव विहरति। तत्थ णं वारवतीए दक्षिणकरद्वया फलकपरशुयुतवामपाणिद्वया चा प्रव० 27 द्वार। णयरीए वासुदेवो राया, धारणा देवी, वण्णओ जहागोयमो णवरं जालाउ पु० (जालायुष) द्वीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। जी०। जालिकुमारे पणासतो दातो वारसंगी सोलस-वासपरियाओ जालाउय पुं०(जालायुष्क) 'जालाउ' शब्दार्थे, प्रज्ञा०१ पद) सेसं जहा गोयरस० जाव सेत्तुंजे सिद्धो / अन्त०४ वर्ग। जालामालिणी स्त्री० (ज्वालामालिनी) प्रभासस्थायां देवतायाम्, ती० | जालिय त्रि० (ज्वालित) दीपिते, आ० म० द्वि०ा जी०। 45 कल्पन जालिया स्त्री० (जालिका) वृन्ते, एकाथिकानधिकृत्य (अन्तः जालावंत त्रि० (ज्वालयत्) दीपयति, भडा०७ अ०। 4 वर्ग०) जालकं, जालिका, वृन्तम्, इति। विशे। लोह कञ्चुके च। जालि पुं० (जालि) अनुत्तरोपपातिकदशाप्रथमवर्गाद्याध्ययन प्रतिवन- | प्रश्न०३ आश्र० द्वारा वक्तव्यताकेऽनगारे, (अणु०) जालुज्जल त्रि० (ज्वालोज्जवल) प्रभोजवले, औ०। तद्भुक्तव्यता जालुज्जलपहसियाभिराम त्रि० (ज्वालोज्जवलप्रहसिताभिराम) ज्वाल पढमस्स णं भंते। अज्झयणस्स अणुत्तरोववाइयस्स समणेणं० एव यत् उज्जवलं प्रहसितमिव प्रहसितं तेनाऽभिरामो ज्वालोज्जवलजाव० संपत्तेण के अढे पण्णत्ते?। एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं प्रहसिताऽभिरामः। ज्वालात्मकोजवलप्रहसितेना ऽभिरमणीये, जी० तेणं समएणं रायगिहे नयरे रिसृत्यमिय-समद्धिगुणसीले चेइए | 3 प्रतिका सेणिए राया धारिणी देवी सीहो सुमिणो 'जालिकुमारे' जहा | जाव त्रि० (यावत्) यत्परिमाणस्य मतुप / "अन्त्यव्यञ्जनस्य" मेहो अट्ठट्ठ तु दातो०माव उप्पिंपासाए फुटति० जाव विहरति। 1 / 11 / इति प्राकृतसूत्रोण तज्ञोपः। प्रा० 1 पाद। यत्परिमाणे -
SR No.016146
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1456
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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