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________________ आयरिय 353 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय पणयालीसपरिसगुण, जुत्तोसूरिपयजुग्गे // 2 // आयरियनिसिप्झाए उवविसणं वंदणं च तह गुरुणो तुल्लगुणादेसकलं पसिद्धि, छत्तीसगणगणालंकिओ दवचरित्ते / क्खायणत्थं ण तया दुटु दुवण्हपितउ वक्खाणं करेहत्ति। गुरुणा जयणाजुत्तो संघस्य, सम्मओ मुक्खकं खी य ||3|| दुत्ते तत्थष्ठिओ चेव अहिणवसूरी नंदिमाइयं परिसाणुरूवं वा वक्खाणं करेइ / तस्सम्मतीए य संघो तं वंदइ / तओसोवि कालाइव साइकाइ, गुण विहीणो विसुद्धगीयत्थो।। णिसिजाउ उठेइ गुखो तत्थ णिसित्ता उवहंति। यथा ग्रायणीपुथ्ये ठाविजइ सूरिपए, उजुत्तो सारणाइसुंक्षा दसमसिलोगबंधेण सिक्खा दिति। सुगुणभावे न पुणो, गुणपरिहाणी ठविजए सूरी। अप्पते सूरिपयं, दितस्स गुरुस्स गुरुदोसो ||5|| नमोईऽत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः। जउत्तंबूढो गणहरस्स, दोगोयमाइहिं धीरपुरिसेहिं॥ यथा / धन्यस्त्वं येन विज्ञात, स्संसारगिरिदारकः॥ जोतं ठवह अपत्ते, जाणंतो सो महापावो ||6|| वजवझुर्मिदश्चायं, महाभाग ! जिनागमः ||2|| कहं भासेइ अगीअत्थो, चउरंगं सवलो असारंग / / इदं चारोपितं यत्ते, पदं तत्संपदा पदम्।। नद्धमिअ चउरंगेण, हु सुलहं होइ चउरंग / / 7 / / श्रीगौतमसुधादि, मुनिसिंहनिषोवितम् ॥शा नासेइ संवेगो, चउरंगं सवलो य सारंगं / धन्येभ्यो दीयते भद्र,! धन्या एवास्य पारगाः॥ नटुंमिय चउरंगेण, हु सुलह होइ चउरंग || धन्या गत्वाऽस्य पारन्तु, पारं गच्छंति संसृतेः // 3|| भीतं संसारकांतारा,त्साधुवृन्दमिदं मुदा॥ एयाए विहीएसुसीसस्स परिक्खा काऊण दुसममयाणुभावेणं पसत्थे तिहिनक्खत्तमुहत्ते गहिए पामाइअकाले पट्टविए गुरुसीसे विमोचने समर्थस्य, भवतश्शरणागतं / / 4 / / सिज्झाए करित्ता पसत्थजिणभवणा इखित्ते अक्खए गुरुजुगे अतो विधेयं यत्नेन, सारणावारणादिना // निसिजादुगे कातवे अणुओगाणुण्णवणत्थं कियलोयस्ससीसस्स अपायपरिहारेण, संसारारण्यपारगं / / 1 / / सिरे गुरुणो वासं घेति मंतिऊण सीसे खिवति / सुसीसस्स से एवं तं उववूहिअ विणेयजणोवि अणुसासियव्यो। यथा। तओ पुय्वविहीए देवे वंदावेइत्ता अणुओगाणुण्णवणत्थं काउस्सग्गं युष्माभिरपि नैवेष, सुस्थबोधिस्थसन्निभः॥ किरइ / सत्तावीसुस्सा संदुवेवि गुरुसीसा तओपयडं चउवीसं थुतं संसारसागरोत्तारी, विमोक्तव्यः कदाचन||१ पडित्ता वारत्तिगं पंचमंगलुधारं करें ति / सुद्धष्ठिया / गुरु अन्नोवा प्रतिकूलन कर्तव्य, मनुकूलरतैः सदा // अक्खलियाइगुणोपवेय मंदिसुत्तं कटेइ / खसीसो अहोणयकायुजोडियकरकमल-कुमलोपववमाणसंवेगो सुणेइ / भाव्यमस्य गृहत्यागो, येनवस्सफलो भवेत्॥शा तओ सीसो वंदितो भणेइ इच्छयारिंभंते ! तुम्हे अणुओ गं जाणह अन्यथा लोकबंधूना, माज्ञालोपः कृतो भवेत्॥ तओ गुरु मणइ अहमेअस्स साहुस्स दव्वगुण पञ्जवेहि खमासमणाणं ततो विडंबना घोरा, भवेदिह परत्र च // 3 / / हत्थेणं अणुओगं अणुजाणामि विए संदिसह किं मणामि / वंदित्ता ततः कुलवधून्यायात, कायें निभर्साितैरपि / पवेएह तइए इच्छ यारि तुम्हे अम्हं अणुओगो अणुण्णाउं। इच्छामो यावजीवं न मोक्तव्यं, पादमूलममुष्य भोः ||4|| अणुसट्टिति सीसेण भणिए गुरु भणइ। संम्डे अवहारे यव्वं अन्नेसिं तो ज्ञानभाजनं धन्या, स्तेहि निर्मलदर्शनाः।। पवेयहचउत्थे तुझाणं पवेइयं संदिसह साहूणं पवेएमि पंचमेय ते निष्प्रकंपचारित्रा, ये सदा गुरुसेविनः||१| इक्कणमुक्कारेण समोसरणं च गुरं च पयक्खिणेइ एवं तिन्नि वारा इदं अणुसष्टि काउं दोवि णिरुद्धं करें ति दोविसज्झायस्स छट्टेण तुम्हाणं पवेइउ साहूणे पवेइऊं संदिसह काउस्सग्गं करेमि। कालस्सय पडिकमंति। आयरियं पंचएए अइसया ववहारगत्थे सत्तमे अणओगाणु जाणावणियं करेमिकाउस्सगमिथाइणा उवसग्गे अभिहिया॥ कए गुरुसमप्पिय णिसिञ्जा जुओ गुरां तिपयक्खिणीकरिय वंदित्ता भत्ते पाणे धोवणए, पसंसणा हत्थपायसोएय॥ गुरुदाहिणओ उचआसन्ने निसिञ्जाए णिसी अइ / तउ णिसन्नस्स लग्गवेलाए दाहिणसवणे गुरुपरंपरा गयमंतपए तिनिवारे परिकहे।। . आयरियअइसेसा, णइसेसा होतणायरिया ||2|| तओ वकृतिया उतिनिअक्खमुट्टिओ देइ करयलपुडे सीसो ताउ उप्पन्ननाणा जहनो अडंती, चुत्ती सुबद्धा इसया जिणिंदा। उवउत्तो गिकइ / तओ गुरु तस्स नामंकारिय णि सिचाउ उद्वेइ। एवं गणी अदृगुणोववेआ, सत्थावनो हिंडइइडिमंतु // 2 / सीसो तत्थ णिसीयइ अहा सन्निहीयसंघसहिओ गुरू तस्स वंदणं गुरुहिंडणंमि गुरुगा, वसभे लहुगा णिवारयंतंमि // देइ / इयं च तुल्यगुणाख्यापनार्थमुभयोरपिन दोषाय / यदाह / गीयागीयगुरुलहू, आणाइआ बहूदोसा / / 3 / /
SR No.016144
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1224
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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