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________________ 20 वृत्तान्त कह सुनाया तब श्रीपूज्यजी ने भी उन कलमों को पढ़ कर और हितकारक समझकर मंजूर की और उस पर अपनी सही। दी और साथ में सूरिपद की अनुमति भी दी। इस प्रकार श्रीधरणेन्द्रसूरिजी को गच्छसामाचारी की नव कलमों को मानकर और अपना पाँच वर्ष का लिया हुवा 'अभिग्रह' पूर्ण हो जावरे के श्रीसंघ की पूर्ण विनती होने से वैराग्यरङ्गरञ्जित हो श्रीपूज्याचार्य श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने अपना श्रीपूज्यसं छडी, चामर, पालखी, पुस्तक आदि सब सामान श्रीसुपार्श्वनाथजी के मंदिर में चढ़ाकर संवत् 1925 आषाढ वदि 10 बुधवार के दिन : सुयोग्य शिष्य मुनि श्री प्रमोदरुचिजी और श्री धनविजयजी के साथ बड़े समारोह से क्रिया-उद्धार किया, अर्थात् संसारवर्द्धक सब उपाहि को छोड़कर सदाचारी, पञ्च महाव्रतधारी सर्वोत्कृष्ट पद को स्वीकार किया। उस समय प्रत्येक गाँवों के करीब चार हजार श्रावक हाजि उन सभी ने आपकी जयध्वनि करते हुए सारे शहर को गुंजार कर दिया। क्रियाउद्धार करने के अनन्तर खाचरोद संघ के अत्यन्त आग्रह से आपका प्रथम चौमासा (सम्बत् 1625 का) खाचरोद में हुआ, चौमासे में श्रावक और श्राविकाओं को धार्मिक शिक्षण बहुत ही उत्तम प्रकार से मिला और सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हुई। चौमासे के उत् में श्रीसंघ की ओर से अट्ठाई महोत्सव किया गया, जिस पर करीब तीन चार हजार श्रावक श्राविका एकत्रित हुए, जिससे जैन धर्म की ब भारी उन्नति हुई; इस चौमासे में पाँच सात हजार रुपये खर्च हुए थे और जीर्णोद्धारादि, अनेक सत्कार्य हुए। फिर चतुर्मासे के पूर्ण होने / ग्रामानुग्राम विहार करते हुए 'नीबाड़' देशान्तर्गत शहर 'कूकसी' की ओर आपका आगमन हुआ। 'कूकसी' में आसोजी देवीचन्दजी आ अच्छे अच्छे विद्वान् श्रावक रहते थे, जिनके व्याख्यान में पाँच पाँच सौ श्रावक लोग आते थे, इन दोनों श्रावकों ने आपके पास द्रव्यानुयोगविषय अनेक प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर आपने बहुतही सन्तोषदायक दिये। उन्हें सुनकर और आपका साधुव्यवहार शुद्ध देखकर अतीव समारो के साथ सब श्रावक और श्राविकाओं ने विधि पूर्वक सम्यक्त्व व्रत स्वीकार किया। यहाँ उन्तीस 26 दिन रहकर अनेक लोगों को जैनमार्गानुगार्म बनाया। फिर क्रम से संवत् 1926 रतलाम, 1627 कूकसी, 1928 राजगढ़ और फिर 1926 का चौमासा रतलाम में हुआ। इस चौमासे चौमासे में श्रावक और श्राविकाओं को धार्मिक शिक्षण बहुत ही उत्तम प्रकार से मिला और सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हुई। चौमासे के उर में श्रीसंघ की ओर से अट्ठाई महोत्सव किया गया, जिस पर करीब तीन चार हजार श्रावक श्राविका एकत्रित हुए, जिससे जैन धर्म की ब भारी उन्नति हुई; इस चौमासे में पाँच सात हजार रुपये खर्च हुए थे और जीर्णोद्धारादि, अनेक सत्कार्य हुए। फिर चतुर्मासे के पूर्ण होने ग्रामानुग्राम विहार करते हुए 'नीबाड़' देशान्तर्गत शहर कूकसी की ओर आपका आगमन हुआ। 'कूकसी' में आसोजी देवीचन्दजी आ अच्छे अच्छे विद्वान् श्रावक रहते थे, जिनके व्याख्यान में पाँच पाँच सौ श्रावक लोग आते थे, इन दोनों श्रावकों ने आपके पास द्रव्यानुयोगविषय अनेक प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर आपने बहुतही सन्तोषदायक दिये। उन्हें सुनकर और आपका साधुव्यवहार शुद्ध देखकर अतीव समारो के साथ सब श्रावक और श्राविकाओं ने विधि पूर्वक सम्यक्त्व व्रत स्वीकार किया। यहाँ उन्तीस 26 दिन रहकर अनेक लोगों को जैनमार्गानुगार्म बनाया। फिर क्रम से संवत् 1626 रतलाम, 1927 कूकसी, 1628 राजगढ़ और फिर 1626 का चौमासा रतलाम में हुआ। इस चौमासे में संवेगी जवेरसागरजी और यती बालचन्दजी उपाध्याय के साथ चर्चा हुई, जिसमें आपको ही विजय प्राप्त हुआ और 'सिद्धान्तप्रकाश नामक बहुत ही सुन्दर ग्रन्थ बनाया गया। संवत् 1930 का चौमासा जावरा में और 1631 तथा 1632 का चौमासा शहर 'आहोर में हुआ। ये दोनों चौमासे एकही गाँव में एक भारी जातीय झगड़े को मिटाने के लिये हुए थे, नहीं तो जैन साधुओं की यह रीति नहीं है कि जिस पर सङ्घ ने भारी उत्सव किया और प्रति प्रश्न तथा उत्तर की पूजा की। सं०१९४५ वीरमगाम, और 1946 का चौमासा सियाणा
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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