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________________ [सिद्धहेम.] (138) अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] यावत् न निपतति कुम्भतटे सिंहचपेटाचटात्कारः। तावत् समस्तानां मदकलानां (गजानां) पदे पदे वाद्यते ढक्का।।१॥ (हाथियों के गण्डस्थल पर जब तक सिंह के पंजों का प्रहार नहीं हुआ है, तभी तक सर्व मदोन्मत्त हाथियों के ढोल-नगारे बेंड बाजे, पग-पग पर बजते रहेंगे। 406.1) तिलहँ तिलत्तणु ताउँ पर जाउँ न नेह गलन्ति / नेहि पणट्ठइ ते जि तिल तिल फिट्टवि वल होन्ति // 2 // तिलानां तिलत्वं तावत् परं यावत् न स्नेहाः गलन्ति। स्नेहे प्रनष्ट ते एव तिलाः तिलाः भ्रष्ट्रा खलाः भवन्ति / / 2 / / (तिलों का तिलपना तभी तक है कि जब तक उनका तेल निकला नहीं है। तेल निकलते ही तिल तिल न रहकर खल (दुष्ट) बन जाती है। 406.2) जामहि *विसमी कज्ज- गइ जीवहँ मज्झे एइ / तामहि अच्छउ इयरु जणु सुअणु वि अन्तरु देइ // 3 // यावद् विषमा कार्यगतिः जीवानां मध्ये आयाति। तावद् आस्तमितरः जनः सुजनोऽप्यन्तां ददाति // 3 // (जब किसी भी जीव पर आपत्ति आती है, तब अन्य जन तो ठीक परन्तु स्वजन, सुजन, सर्वजन भी अन्तर रखकर व्यवहार करते हैं। 406.3) वा यत्तदोऽतो.वडः // 407 / / अत्वन्तयत्तदोर् यावत्तावतौ यौ, तयोः पुनः / वाऽऽदेरवयवस्येह, पदे वा 'डेवडो' ऽस्तु डित् / जेवडु अन्तरु रावण-रामहं तेवडु अन्तरु पट्टण-गामहं // 1 // यावद् अन्तरं रावणरामयोः तावद् अन्तरं पट्टणग्रामयोः / / 1 / / (जो अन्तर रावण और राम में है. वही अन्तर शहर और गाँव में है। 407.1) पक्षे रूपं भवति जेतुलो, तावच्छब्दस्येह तेत्तुलो। वेदं किमोर्यादेः // 408|| अत्वन्तेदं-किमोर् 'इयत्-कियतौ'यौ तयोः पुनः। याऽऽदेवयवस्येह, पदे या ‘डेवडो' ऽस्तु डित् / एत्तुलो केत्तुलो रूपं, तथा एवडु केवडु। परस्परस्यादिरः ||406 // परस्परस्य शब्दस्य, भवेद् आदावद् आगमः। 'अवरोप्परु' इत्येतत्, ततः सिद्धं परस्परे। ते मुग्गडा हराविआ जे परिविट्ठा ताहं / अवरोप्पर जोअन्ताहं सामिउ गजिउ जाहं // 1 // ते मुद्राः हारिताः ये परिविष्टाः तेषाम् / परस्परं युध्यमानानां स्वामी पीडितः येषाम् / / 1 / / (परस्पर युद्ध करने वालों में से जिसका स्वामी पीड़ित हुआ और उसे जो मूंग पिरोसे गये, वे व्यर्थ हो गये। 406.1) कादि-स्थैदोतोरुचार-लाघवम् / / 10 / / एदोतोर् लघुताऽस्तु, प्रायः स्थितयोः कादिषु हि / सुचें चिन्तिजइ माणु, तसु हउं कलि-जुगि दुल्लहहो। पदान्ते उं-हुं-हिं-हंकाराणाम् // 411 / / 'उ-हुं-हिं-हं' इत्यमीषां, पदान्तानां तु भाषणे / कर्तव्यं लाघवं प्रायो, यथा लहहुकिज्ज। अन्नु जु तुच्छउँ तहे धणहे / (350.1) बलि किज्जउँ सुअणस्सु / 338.1) दइउ घडावइ वणि तरुहुँ (340.1) तरुहुँ वि वक्कलु (341.2) खग्ग-विसाहिउ जहिं लहडं (386.6) तणहँ तइज्जी भङ्गि न वि / (336.1) म्हो म्भो वा // 41 // प्राकृते पक्ष्म-[२/७४ ] सूत्रेण, यो म्हाऽऽदेशो विधीयते। तस्य 'म्भो' वाऽत्र जायेत, 'गिम्भो सिम्भो' यथा पदम्। बम्भ ते बिरला के विनर जे सव्वङ्ग-छइल्ल / जे वङ्का ते वञ्चयर जे उज्जुअ ते बइल्ल ||1|| ब्रह्मन् ते विरलाः केऽपि नराःये सर्वाङ्गच्छेकाः। ये वक्राः ते वञ्च (क) तराः ये ऋजयः ते बलीवर्दाः / / 1 / / (हे भूदेव, जो सर्व अंगों में सर्व विद्या में निपुण हो, ऐसे नर दुर्लभ हैं, जो चतुर हैं, वे ठग हैं और जो सीधे-सादे हैं, वे वृषभ हैं। 412.1) अन्यादृशोऽन्नाइसावराइसौ // 413|| स्थाने त्वऽन्यादृशस्यात्राऽन्नाइसः स्तोऽवराइसः। प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्ब-पग्गिम्बाः // 41 // 'पग्गिम्ब-प्राइव-प्राउ-प्राइम्बाः' प्रायसः पदे। अन्ने ते दीहर लोअण अन्नु तं मुअ-जुअलु / अन्नु सु घण-थण-हारु तं अन्नु जि मुह-कमलु / अन्नु जि केस-कलावु सु अन्नु जि प्राउ विहि जेण णिअम्बिणि घडिअ स गुण-लायण्ण-णिहि ||1|| अन्ये ते दीर्घ लोचने अन्यत् तद् भुजयुगलम्। अन्यः स घनस्तनभारः तदन्यदेव मुखकमलम्। अन्य एव केशकलापः सः अन्य एव प्रायो विधिः / येन नितन्बिनी घटिता सा गुणलावण्यनिधिः / / 1 / / (वे दीर्घ लोचन अन्य ही हैं, वह भुजयुगल अन्य ही हैं, धन-स्तनों का वह भार अन्य ही है, वह मुख-कमल भी अन्य ही है, वह केशकलाप भी अन्य ही है, गुण व लावण्य का भण्डार उस पतली कमरखाली को जिसने घड़ा है, वह घड़वैया विधाता भी कुछ अन्य ही है। 414.1) प्राइव मुणिहँ वि भन्तडी तें मणिअडा गणन्ति / अखइ निरामइ परम-पइ अज्ज वि लउ न लहन्ति // 2 // प्रायो मुनीनामपि भ्रान्तिः ते मणीन् गणयन्ति। अक्षये निरामये परमपदे अद्यापि लयं न लभन्ते // 2 // (लगभग मुनि-गण भी भ्रांतिमय है, वे माला के मणके गिनते हैं / वे आज भी अक्षर और निरामय ऐसे परमपद में तल्लीन नहीं हुए हैं। 414.2)
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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