SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (136) [सिद्धहेम०] अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] (कुछ भी करके थोड़ा चन्द्र को छीला होता (उसका कलंक दूर किया स्वरात परेऽसंयुक्ता अनादिभूतास्तु सन्ति ये, तेषाम्। होता)तो बेचारे को इस जग में गौरी (प्रियतमा) के मुख कमल से 'क-ग-त-थ-प--फ-वर्णानां स्थाने 'ग-घ-द-ध-ब-भाः प्रायः / / थोड़ा सा सादृश्य मिल गया होता / 365.1) [कस्य गः] 'जं दिट्ठउं सोम-ग्गहणु असइहिं हसिउ निसकु। चूडल्लउ चुण्णीहोइ सइ मुद्धि कवोलि निहित्तउ। पिय-माणुस-विच्छोह-गरु गिलि गिलि राहु भयङ् कु॥१॥ सासानल-जाल-झलक्किअउ वाह-सलिल-संसित्तउ'॥२॥ यदृष्टं सोमग्रहणमसतीभिर्हसितं निःशड्कम्। चूटकश्चूर्णीभविष्यति मुग्धे! कपोले निहितः। प्रियमानसविक्षोभकरं गिल गिल राहो ! मृगाङ्कम्।।१।। श्वासानलज्वालादग्धः वाष्पसलिलसंसिकः।।२।। (जब कुलटाओं ने चन्द्रग्रहण को देखा, तब वे जोर से हंस पड़ी और (हे सुन्दरि, गाल पर रखा हुआ यह कंगन साँस रूपी अग्नि की कहने लगी-- 'प्रिय जनों को दुःखी करनेवाले चन्द्र को, हे राह निगल ज्वालाओं से तप्त होकर तथा अश्रुजल से प्लावित होकर (यह जा निगल जा रे इसे / 366.1) कंगन) स्वयं ही बिचारा-चूर-चूर हो रहा है। 365.2) [ खस्य घः] अम्मीए सत्थावत्थेहिं सुधिं चिन्तिज्जइ माणु। 'अभडवंचिउबे पयई पेम्मु निअत्तइ जाँव। पिए दिट्टे हल्लोहलेण को चेअइ अप्पाणु ?|| सव्वासण-रिउ-संभवहो कर परिअत्ताताँव // 3 // अम्ब ! स्वस्थावस्थैः सुखेन चिन्त्यते मानः। अनुव्रज्य (मुत्कालाय्य) द्वौ पादौ प्रेम (प्रिया) निवर्तते यावत्। प्रिये दृष्ट औत्सुक्येन क आत्मानं चेतयते॥२॥ सर्वाशनरिपुसंभवस्य कराः परिवृत्तास्तावत् // 3 // (हे माँ, सुख में रहनेवाले मनुष्य से मान की अपेक्षा रखी जाती है। (जब प्रिया दो डग चलकर लौट आए, तब सर्व वस्तु का भक्षण परन्तु जब प्रियतम दृष्टिगोचर होता है, तब व्याकुलता के कारण सुधबुध करनेवाले अग्नि के शत्रु समुद्र और उससे उत्पन्न चन्द्र के किरण परावृत न रहने के कारण अपना विचार कौन करता है? 366.2) होने लगे-चंद्र मंद होने लगा। (सर्ववस्तु हाक भक्षक अग्नि तथा अग्नि तथपफानां दधबभाः यथाका शत्रु समुद्र से उत्पन्न होने वाला चन्द्र और चंद्र के किरण पराजित होने लगे प्रियतमा को देखकर) / 365.3) सवधु करेप्पिणु कधिदु मई तसु पर सभलउं जम्मु। हिअइ खुडुक्कइ गोरमी गयडि घुडुक्कइ मेहु / जासुन चाउन चारहडि न य पम्हट्ठउ धम्मु // 3 // वासा-रत्ति-पवासुअहं विसमा संकडु एहु॥४ शपथं कृत्वा कथितं मया तस्यपरं सफलं जन्म। हृदये शल्यायते गौरी गगनेगर्जति मेघः। यस्यनत्यागो न चारभटीनच प्रमृष्टोधर्मः।।३।। वर्षारात्रिप्रवासिकानां विषमं संकटमेतत्॥४|| (शपथ लेकर मैं कहता हूँ कि जिसका दान करना, पराक्रम और (प्रिया हृदय में शल्य के समान चुभने लगी। इसलिए कि गगन में धर्म नष्ट नहीं हुए हैं, उसका जन्म पूर्ण रूप से सफल हुआ है। 366.3) मेघ गरजने लगे। दुर्दिन वर्षा ऋतु की रात प्रवासियों के लिए अत्यंत जइ केवँइ पावीसु पिउ अकिआ कुड करीसु / संकट भरी दुःखद है। 365.4) पाणिउ नवइ सरावि जि सव्वङ्गे पइसीसु // 4 // अम्मि ! पओहर वज्ज मा निच्चु जे संमुह थन्ति। यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियं अकृतं कौतुकं करिष्यामि / महु कन्तहो समरङ्गणइ गय-घड भजिउ जन्ति // 5 // पानीयं नवके शरावे यथा सङ्गिण प्रवेक्ष्यामि // 4 // अम्ब ! पयोधरौ वर्जय मा नित्यं यौ संमुखो तिष्ठतः। (किसी भी तरह से येन-केन-प्रकारेण मैं प्रियतम को प्राप्त कर लें. ममकान्तस्यसमराङ्गणे गजघटाभ-क्त्वा यान्ति।।५।। तो पहले कभी भी न किया हुआ आश्चर्य मैंने कर डाला होगा। नये (हे मां, मेरे ये स्तन वजमय है। इसलिए कि ये नित्य ही प्रियतम सकोरे में जैसे पानी चारों ओर फैल जाता है, वैसे मैं प्रियतम में समा के सामने होते हैं, और समरांगण में गजसमूह नष्ट करने के लिए पहुँच जाऊँगी।३६६.४) जाते हैं 1 365.5) उअ कणिआरु पफुल्लिअउ कञ्चण-कन्ति-पयासु। पुत्ते जाएं कवणु, गुणु अवगुणु कवणु मुएण। गोरी-वयण विणिजिअउ नं सेवइ वण-वासु // 5 // जा वप्पीकी मुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण / / 6 / / पश्य कर्णिकारः प्रफुल्लितकः काञ्चनकान्तिप्रकाशः / पुत्रेण जातेन को गुणः अपगुणः को मृतेन। गौरीवदनविनिर्जितकः ननु सेवते वनवासम् // 5 // या पैतृकी भमिराक्रम्यते अपरेण॥६॥ (मित्र देख, स्वर्ण कान्ति के समान चमकने वाला कर्णिकार वृक्ष इस (यदि आपकी पैतृक भूमि-संपत्ति दूसरों के द्वारा छीन ली जाए, तो वन में कितना प्रफुल्लित है? (जानते हो वन में क्यों है?) प्रियतमा तुम्हारे पुत्र जन्म से क्या लाभ ? और तुम्हारे न होने से क्या हानि। के मुख-कान्ति से जीत जाने के कारण बेचारा वनवास स्वीकार किए 365.6) हुए है। 366.5) तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेवड वित्थारु। मोऽनुनासिको वो वा // 397|| तिसहे निवारणु पलुवि नवि पर धुठुअइ असारु'॥७॥ अनादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य तुमस्य वा। तत्तावत्जलं सागरस्य सतावान् विस्तारः। स्याद्वोऽनुनासिकस्, तेन कवँ लु कमलु द्वयम्॥ तृषाया निवारणेपलमपि नापि, परं शब्दायतेऽसारः / / अयं लाक्षणिकस्यापि, जे तेवँ इति स्मृतम्। (सागर का जल कितना विशाल और गहरा है। उसका विस्तार भी वाऽधो रो लुक् // 368|| कितना विशाल है। परंतु किसी की थोड़ी सी भी तृषा शांत होती है ? संयोगाऽधःस्थितस्येह, वा रेफस्य लुगिष्यते। तो उसका गरजते रहना सार्थक है क्या? 365.7) 'जइ केवइ पावीसु पिउ' पक्षे 'प्रियेण' च। अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क--त-थ-प-फां ग अभूतोऽपि क्वचित् // 366 घ-द-ध-ब-भाः॥३६६|| 'रेफोऽत्राविद्यमानोऽपि क्वचिद् भवति, दर्श्यते।
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy