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________________ सिद्धहेम.] (135) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] संपदं कर्षामि वेषमिव यदि अर्धति(-स्यात्) व्यवसायः॥१॥ (भले ही दैव विमख हो, ग्रह पीड़ा दे रहे हो, हे प्रिये दुःखी न हो।। यदि मैं व्यवसाय करूँगा तो सम्पदा वेश की तरह खींच लाऊँगा। 385.1) बहुत्वे हुं // 386|| त्यादीनां तु विभक्तीना, यदन्त्यं त्रिकमुच्यते। तद्बहुत्वस्य 'हु वा स्याद्, 'लहुहं लहिमु' स्मृतम्। खग्ग-विसाहिउ जहिँ लहहु पिय तर्हि देसहि जाहुँ। रण दुन्भिक्खें भग्गाइं विणु जुज्झें न वलाहुं |1|| खगविसाधितं यत्र लभामहे तत्र देशे यामः। रणदुर्भिक्षेण भग्नाः विना युद्धेन नवलामहे // 1 // (हे प्रिये, जहाँ हमें तलवार के लिए व्यवसाय मिलेगा उसी देश में हम जाएँगे। युद्ध के दुर्भिक्ष के कारण हम कुछ टूट गये हैं, बिना युद्ध के हम सुखी नहीं होंगे // 386.1) हि-स्वयोरिदुदेत् // 387 / / पञ्चम्या-हि-स्वयोवा स्युर्, 'इदुदेत' इमे त्रयः। [इत् ] 'कुञ्जर! सुमरिम सल्लइउ सरला सासम मेल्लि॥ कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरिमाणु म मेल्लि / / 1 / / कुञ्जर ! स्मरमा सल्लकान् सरलान् श्वासान्मा मुञ्च। कवला ये प्राप्ता विधिवशेन तान् चर मानं मा मुञ्च / / 1 / / (मेरे भाई हे हाथि, उस सल्लिकी नामक वृक्ष का स्मरण करके दुःखी न हो / लम्बी साँसे भरना छोड़ दे। दैव योग से जो कमल प्राप्त हो रहे हैं, उनका भोजन कर ! अपना स्वमान न गँवा / / 387.1) [उत् ] भमरा ! एत्थु वि लिम्बडइ केवि दियहडा विलम्बु।। घण-पत्तलु छाया-बहुलु फुल्लइ जावें कयम्बु // 2 // भ्रमर !अत्रापि निम्बे कियन्ति दिवसानि विलम्बस्व / घनपत्रवान् छायाबहुलः फुल्लति यावत् कदम्बः।। (हे मित्र भ्रमर, घने पत्ते और घनी छाया प्रदान कारनेवाले कदम्ब वृक्ष के फलने-फूलने तक इस नीम के वृक्ष पर कुछ दिन व्यतीत कर ले। 387.2) [एत्] प्रिय ! एम्बहिं करि सेल्लु करिछड्डहि तुहुं करवालु / / जंकावालिय बप्पुडा लेहिं अभग्गु कवालु'|३|| प्रिय ! इदानीं करे सेल्लं कुरु मुञ्च त्वं करवालम्। यत् कापालिका वराका लान्ति अभग्रं कपालम्॥३॥ (हे प्रिय, अब हाथ में भाला रख और तलवार छोड़ दे। इसलिए कि बेचारे का गरीब मालिक कम से कम बिनफूटे हुए कपाल का भिक्षापात्र बना लेंगे। 387.3) पक्षे सुमरहीत्यादि, रूपं बोध्यं मनीषिभिः॥ वय॑ति स्यस्य सः // 388|| भविष्यदर्थे त्यादीनां, स्यस्य सो वा विधीयते। यथा 'होसई' इत्येतत्, पक्षे होहिइ पठ्यते। दिअहा जन्ति झडप्पहिं पडहिं मनोरह पच्छि। जं अच्छइ वं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि॥१॥ दिवसाःयान्ति वेगैः पतन्ति मनोरथाः पश्चात्। यदस्ति तन्मान्यते भविष्यति (इति) कुर्वन् मा आस्सव / / 1 / / (दिन शीघ्र बीत जाते हैं। मनोरथ अपूर्ण पीछे छूट जाते हैं / जो है वह स्वीकार करें। 'होगा-होगा ऐसा सोचते रहकर व्यर्थ ही मन को न मनाइए / बैठे नहीं। 388.1) क्रियेः कीसु // 386 / 'क्रिये' क्रियापदं त्वेतत्, वाऽत्र 'कीसु' निगद्यते। पक्षे तु 'किजउं बलि सुअणस्सु प्रयुज्यते॥ सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कन्तहों बलि कीसु। तसु दइवेण वि मुण्डियउँ जसु खल्लिहडउँ सीसु / / 1 / / सतो भोगान्यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलि क्रिये। तस्य दैवेनैव मुण्डितंयस्यखल्वाटं शीर्षम्।।१।। (प्रवर्तमान भोगों का जो त्याग करता है, उस प्रियतम की मैं पूजा करती हूँ | जिसका शिर गंजा है, उसका मुंडन तो दैव ने पहले ही कर रखा है। 386.1) ___ भुवः पर्याप्तौ हुचः // 360 // पर्याप्त्यर्थे भुवो धातोः, पदे 'हुच', 'पहुचइ / अइतुंगत्तणु जं थणहं सो छेयउ न हु लाहु / सहि जइ केवँइ तुडि-वसेणे अहरि पहुचइ नाहु। अतितुङ्गत्वं यत्स्तनयोः स च्छेदकः न खलुलाभः। सखि यदि कथमपि त्रुटिवशेन अधरे प्रभवति नाथः / / 1 / / ब्रूगो बुवो वा // 361 / / ब्रूगो धातोर् ब्रुवो वा स्याद्, 'बुवह ब्रोप्पिणु' स्मृतम्। इत्तउँ ब्रोप्पिणु सउणि ठिउ पुणु दूसासणु ब्रोप्पि। तो हउँ जाणउ एहो हरि जइ महु अग्गइ ब्रोप्पि // 1 // इयत् उक्त्वा शकुनिः स्थितःपुनर्दुःशासन उक्त्या। तदा अहं जानामि एष हरिः यदि ममाग्रतः उक्त्वा // 1 // (श्री कृष्ण की उपस्थिति से दुर्योधन की दयनीय मानसिक दुर्दशा का वर्णन) इतना कहकर शकुनि चुप हो गया। फिर वही बोलकर दुःशासन चुप हो गया। तब (दुर्योधन भौंचक्का होकर सोचने लगा) सोचा कि जो मैंने बोलना था वह श्रीकृष्ण बोलकर मेरे सामने खड़ा है। 361.1) व्रजेर्वाञः // 36 // व्रजतेस्तु वुञादेशो, वुप्पिणु वुप्पि च। दृशेःप्रस्सः // 363 / / दृशेर्धातोः पदे प्रस्साऽऽदेशः, 'प्रस्सदि' पश्यति। ग्रहेण्हः ||364 // गृण्हादेशो ग्रहेः स्थाने, 'पढ गृहेप्पिणुव्रतु' तक्ष्यादीनां छोल्लादयः // 365 / / तक्ष्यादीनां तु धातूनां, पदे छोल्लादयो मताः। ये क्रियावाचका देश्या आदिशब्दग्रहा हि ते॥ 'जिवँ तिर्दै तिक्खा लेवि सर जइ ससि छोल्लिज्जन्तु। तो जइ गोरिहे-मुह-कमलि सरिसिम कावि लहन्तु ||1|| यथा तथा तीक्ष्णान् लात्वा शरान् यदि शशी अतक्षिष्यत्। ततो जगति गौर्या मुखकमलेन सदृशतां कामपि अलप्स्यत॥१।।
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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