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________________ [सिद्धहेम०] (127) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] नगर नकर तेन, मेघो मेखः प्रयुज्यते। एवं पञ्चसु वर्गेषु, लक्ष्यं बोध्यं मनीषिभिः / कचिल्लाक्षणिकस्यापि, पदे कार्यमिदं भवेत् / दाढा ताठ ततो बोध्या, पडिमा पटिमा तथा / रस्य लो वा // 326|| रस्य स्थाने लकारः स्यात्, गौरी 'गोली' हरो 'हलो' "पनमथ पनय-पकुप्पित-मोली-चलनम्ग-लग्ग-पतिबिम्बं। तससु नख-तप्पनेसुं, एकातस-तनुथलं लुई ||1|| प्रणमत प्रणयप्रकुपितगौरीचरणाग्रलग्नप्रतिविम्बम्। दशसु नखदर्पणेषु एकादशतनुधरं रुद्रम् / / 1 / / (प्रेमवश कोपायमान हुई पार्वती के चरणों की ओर नृत्य करते हुए शंकर के शरीर के झुकने के कारण पार्वती के दश नखों रुपी दर्पण में जिनके दश प्रतिबिम्ब पड़े हैं, (इस प्रकार) दश नखरूपी दर्पण में और स्वयम् का एक ऐसे ग्यारह रूपधारण करनेवाले महादेव शंकर को नमस्कार करो / / 326-1) नचन्तस्स य लीला-पातुक्खेवेन कम्पिता वसुथा / उच्छल्लन्ति समुद्दा, सइला निपतन्ति तं हलं नमथ"||२| नृत्यतश्व लीलापादोत्क्षेपेण कम्पिता वसुधा। उच्छलन्ति समुद्राः शैला निपतन्ति तं हरं नमत / / 2 / / (नृत्य करते हुए नटराज शंकर के पैरों में स्वाभाविक उच्छाल-प्रहार के आघात से पृथ्वी थर्रा उठी, समुद्र में उफान आ गया और पर्वत गिरने लगे / ऐसे महादेव शंकर को नमस्कार करो। 326-2) नादि-युज्योरन्येषाम् // 327 // अन्येषां तु मते, धातौ युजि चाऽऽदिमवर्णयोः / तृतीय-तुर्ययोराद्यद्वितीयौ भवतो न तौ। यथा 'नियोजितं' इत्येतद् अत्रापि 'नियोजितं' / गतिर् 'गती' तथा धर्मो , घम्मो' विद्वद्भिरुच्यते / शेषं प्राग्वत् // 32 // अत्रानुक्तं तु यत् कायँ , तत् पैशाचीवदिष्यते। यथह नस्य णत्व न, णस्य नत्वं तु सर्वतः / इति चूलिका-पैशचिकभाषा समाप्ता / ------ ------- // अथापभ्रंशभाषाऽऽरभ्यते / / स्वराणां स्वराः प्रायोऽपदंशे // 326 // अपभ्रंशे स्वराणां तु, स्थाने प्रायः स्वरा मताः / यथा-बाहा बाह बाहु, किन्नओं च किलिन्नओ। 'अत्रापभ्रंश-भाषायां, विशेषो यस्य वक्ष्यते। तस्यापि शौरसेनीवत्, कार्य प्राकृतवत् क्वचित् / इत्यर्थबोधकः 'प्रायःशब्दः' सूत्रे नियोजितः / स्यादौ दीर्घ-हस्वौ // 330|| प्रायः स्यादौ दीर्घ-हस्वौ, स्तो नाम्नोऽन्त्यस्वरस्य तु / [ सौ ] "ढोल्ला सामला धण चम्पा-वण्णी। णाइ सुवण्ण-रेह कस-वट्टइ दिण्णी // 1 // नायकः श्यामलःप्रिया चम्पावर्णा / ज्ञायते सुवर्णरखा कषपट्टके दत्ता ||1|| (प्रिय श्याम है। प्रिया चम्पक वर्णी-चम्पा के फूलों के समान है। दोनों का मिलन ऐसा लगता है मानो कसौटी के काले पत्थर पर सोने की रेखा खिंची गई हो। 330.1) [आमन्त्र्ये ] ढोल्ला ! मइँ तुहं वारिया, मा कुरु दीहा माणु / निद्दएँ गमिही रत्तमी, दडवड होई विहाणु // 2 // नायक ! मया त्वं वारितो मा कुरु दीर्घमानम्। निद्रया गमिष्यति रात्रिः शीघ्रं भवति विभातम् / / 2 / / (हे प्रिय, मैने तुझे कहा था कि दीर्घकाल तक मान न कर, कारण कि नींद ही में रात बीत जायेगी और शीघ्र ही प्रभात हो जायेगा। 330.2) [स्त्रियाम् ] बिट्टीए! मइ भणिय तुहुँ, मा कुरु वडी दिहि। पुत्ति ! सकण्णी मल्लि जिर्व, मारइ हिअइ पइहि / / 3 / / पुत्रिके ! मया त्वं भणिता मा कुरु वक्रां दृष्टिम्। पुत्रि ! सकी भल्लिर्यथा, मारयति हृदयं प्रविष्टा // 3 // (हे बेटी, मैने पहले ही तुझसे कहा था कि बाँकी दृष्टि न कर, हे बेटी, तेरी यह बाँकी दृष्टि नोकदार तीक्ष्ण भाले के समान दूसरों के हृदय में प्रविष्ट होकर उन्हें मार डालती है। 330.3) [जसि ] एइ ति घोडा एह थलि एइ ति निसिआ खग्ग / एत्थु मुणीसिम जाणिअइ, जो नवि वालइ वग्ग" ||4|| एते ते घोटका एषा स्थली एते ते निशिताः खगाः। अत्र मनुष्यत्वं ज्ञायते यो नापि वालयति वल्गाम् // 4 // (ये ही वे घोड़े हैं, यही वह युद्ध भूमि है ; ये ही वे तीक्ष्ण तलवारे हैं, यह वही जगह है, जहां पुरुष के पौरुष की सची परीक्षा होती है और योद्धा (रणक्षेत्र से हटने के लिए) अपने घोड़े की लगाम को कभी भी मुड़ने के लिए नहीं खींचता। // 330.4 // अन्यासां च विभक्तीनामेवगृह्यं निदर्शनम्। स्यमोरस्योत् // 331 // अत उत्त्वं स्यमोः, 'चउमुह छंमुहु' सिध्यतः। "दहमुह मुवण-मयंकरु तोसिय संकरु णिग्गउ रहवरि चडिअउ / चउमहु छंमुहु झाइवि एक्कहिं लाइविणावइ दइवें घडिअउ''|१|| दशमुखो भुवनभयङ्करस्तोषितशङ्करो निर्गतो रथवरे चटितः। चतुर्मुखं षड्मुखं च ध्यात्वैकस्मिल्लगित्वा ज्ञायते दैवेन धटितः।।१॥ (सारे जगत को भयभीत करने वाला दशमुखी रावण आशुतोष महादेव शंकर को संतुष्ट करके रथ पर चढ़कर निकला। मानो दैव ने चतुर्मुखी ब्रह्मा के (चार मुख) और (गणेश के अग्रज षण्मुख) कार्तिकेय के (छ मुख) कुल दश मुखों का ध्यान करके, इन दोनों के मुखों को एकत्र करके इस दश मुखवाले रावण को बनाया हो। 331.1) सौ पुंस्योद्दा // 332 // नाम्नोऽकारस्य सौ पुंस्योद् वा, 'जो' 'सो' यथा भवेत्। "अगलिअ-नेह-निचट्टाहं जोअणलक्खुवि जाउ / वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो गउ" ||1|| अगलितस्नेहनिवृत्तानां योजनलक्षमपि यातु।
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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