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________________ हर्ष या हर्षवर्धन ] ( ६८३ ) [ हवं या हर्षवर्धन ~ नान्दी में भगवान् बुद्ध की स्तुति की गयी है जिससे ज्ञात होता है कि हर्षवर्धन बौद्धमतानुयायी थे । [ दे० नागानन्द ] हर्ष की काव्यप्रतिभा उच्चकोटि की है तथा वे नाटककार एवं कवि दोनों ही रूपों में प्रसिद्ध हैं । उनकी कविता में माधुयं एवं प्रसाद दोनों गुणों का सामंजस्य दिखाई पड़ता है । कवि ने रसमय वर्णन के द्वारा प्राकृतिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति की है तथा स्थल - स्थल पर प्रकृति के अनेक मोहक चित्रों का मनोहर शब्दों में चित्र उपस्थित किया है । परम्परा प्रथित वर्णनों के प्रति उन्होंने अधिक रुचि दर्शायी है, फलतः संध्या, मध्याह्न, उद्यान, तपोवन, फुलवारी, निर्झर, विवाहोत्सव, स्नान-काल, मलय पर्वत, बन, प्रासाद आदि इनके प्रिय विषय हो गए हैं। डॉ० कीथ के अनुसार "प्रतिभा और लालित्य में वे कालिदास से निश्चय ही घटकर हैं, परन्तु अभिव्यंजना और विचारों की सरलता का महान् गुण उनमें विद्यमान है । उनकी संस्कृत परिनिष्ठित और अर्थगभित है । शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों का प्रयोग संयत तथा सुरुचिपूर्ण है ।" संस्कृत नाटक पृ० १८० । उनकी शैली सरल तथा प्रभावाभिव्यंजक है और पद्यों में दोघं समासों का अभाव तथा सरलता है। सरल शब्दों के नियोजन तथा अप्रतिहत प्रवाह के कारण कवि भाषा को आकर्षक बनाने की कला में निपुण है। उनका गद्य भी सरल तथा अर्थाभिव्यक्ति की क्षमता से आपूर्ण है और भाषा में रमानुकूल प्रवाह तथा अभीष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने की पूर्ण क्षमता है । उन्होंने अलंकारों का स्वाभाविक रूप से प्रयोग किया है। "अभीष्ट अर्थ की अभिव्यंजना में अलंकार सहायक हुए हैं। अलंकारों का प्रयोग कविता के माधुयं के साथ हुआ है । ऐसे स्थलों पर भाषा सरल, सरस और माधुयं गुण-मण्डित है ।" संस्कृत के महाकवि और काव्य पृ० २७० । उदाहरणस्वरूप चाटुकार उदयन की उक्ति के द्वारा वासवदत्ता के सौन्दर्यवर्णन को रखा जा सकता है - "देवि त्वन्मुखपङ्कजेन शशिनः शोभा तिरस्कारिणा पश्याब्जानि विनिर्जितानि सहसा गच्छन्ति विच्छायताम् । श्रुत्वा त्वत्परिवारवारवनिताभृङ्गांगना लीयन्ते मुकुलान्तरेषु शनकैः संजातलज्जा इव ॥" रत्नावली १।२५ 'देवि ! चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करने वाले तुम्हारे मुख रूप कमल ने जलस्थ कमलों को जीत लिया है । इसी कारण इनमें सहसा म्लानता आ रही है । तुम्हारे इन परिजनों तथा गणिकाओं का मधुर संगीत सुनने में भृङ्गाङ्गनायें कलियों में छिपती जा रही हैं, मानो उन्हें अपनी होनता पर लज्जा आ रही हो। इनके नाटकों में श्लेष तथा अनुप्रासादि शब्दालंकार अधिक प्रयुक्त हुए हैं, पर वे भावों के उत्कर्षक तथा स्वाभाविक हैं । छन्दों के प्रयोग के संबंध में हर्ष की निजी विशिष्टताएं हैं। उन्होंने अधिकांशतः लम्बे एवं जटिल छन्दों के प्रति अधिक रुचि प्रदर्शित की है जो नाटकीय दृष्टि से उपयुक्त नहीं माने जा सकते। उनका प्रिय छन्द शार्दूलविक्रीडित है जो 'रत्नावली' में २३ बार 'प्रियदर्शिका' में २० बार तथा 'नागानन्द' में ३० बार प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार लग्धरा, आर्या, इन्द्रवज्रा, वसंततिलका, मालिनी, शिखरिणी आदि छन्दों के प्रति भी कवि का विशेष आग्रह है । इतना अवश्य है कि उनके छन्द लम्बे होते हुए भी सांगीतिकता से पूर्ण हैं । प्राकृतों में हर्ष ने विशेषतः शौरसेनी एवं
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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