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________________ संस्कृत नाटक ] [ संस्कृत नाटक संस्कृत गद्य परिमार्जित, प्रौढ़ एवं पुष्ट होता जा रहा है। ऐसे लेखकों में डॉ० रामजी उपाध्याय, आचार्य विश्वेश्वर एवं प्रशा कुमारी के नाम उल्लेखनीय है । इनके ग्रन्थों के नाम हैं क्रमश: -- 'भारतस्य सांस्कृतिकनिधिः', 'मनोविज्ञानमीमांसा', 'नीतिशास्त्रम्' एवं 'काशिकाया: समीक्षात्मकमध्ययनम्' । सम्प्रति संस्कृत की शोध संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों में शोधप्रबन्ध के रूप में मौलिक ग्रन्थ-लेखन का कार्यारम्भ हो गया है, जिनके ऊपर उच्च- उपाधियां प्रदान की जाती हैं। कई लेखकों ने गद्य में संस्कृत साहित्य के इतिहास भी लिखे हैं उनमें श्री हंसराज अग्रवाल, 'संस्कृत साहित्येतिहास: ), द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री ( संस्कृतसाहित्य विमर्श: ), आचार्य रामचन्द्र मिश्र ( संस्कृत साहित्येतिहासः ) तथा आचार्य रामाधीन चतुर्वेदी ( संस्कृत भाषा विज्ञानम् ) के नाम प्रख्यात हैं । इन ग्रन्थों के लेखन से संस्कृत गद्य को प्रभूत गति मिली है । आधारग्रन्थ--- १. हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर - डे एवं दासगुप्त । २. संस्कृत साहित्य का इतिहास - श्री कीथ (हिन्दी अनुवाद) । ३. संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास - डॉ० रामजी उपाध्याय । ४ संस्कृत साहित्य का इतिहास पं० बलदेव उपाध्याय । ५. संस्कृत साहित्य का इतिहास - श्री गैरोला । --- संस्कृत नाटक - संस्कृत नाट्य साहित्य अत्यन्त विकसित एवं प्रौढ़ हैं। इसकी अविच्छिन्न परम्परा भास से लेकर आधुनिक युग तक चलती रही है । संस्कृत साहित्य की अन्य शाखाओं की अपेक्षा नाटकों की लोकप्रियता अधिक रही है । इसे कवित्व की चरमसीमा मानकर आचार्यों ने इसकी महत्ता सिद्ध की है - नाटकान्तं कवित्वम् । चूंकि नाटक रङ्गमंच पर अभिनीत होते थे अत: इनकी उपयोगिता सार्वजनिक थी, और ये सबके मनोरंजन के साधन बने हुए थे । आचार्य भरत ने तो नाटक को सावणिक वेद कह कर इसकी सर्वजनोपकारिता का महत्व प्रदर्शित किया था। इसमें किसी एक विषय का वर्णन न होकर तीनों लोकों के विशाल भावों का अनुकीर्तन किया जाता है - त्रैलोक्यस्यास्य सर्वस्वं नाट्यं भावानुकीर्तनम् । नाट्यशास्त्र १।१०४ । इसमें कवि लोकवृत्त का अनुकरण कर जीवन की ज्वलन्त समस्याओं का संस्पर्श करता है। तथा उन सभी विषयों का वर्णन करता है जो जीवन को सुखी एवं दुःखी बनाते हैं । भरत के अनुसार ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, योग एवं कर्म नहीं है जो नाटक में दिखाई न पड़े। नानाभावोपसम्पन्नं नानावस्थान्तरात्मकम् । लोकवृत्तानुकरणं नाट्यमेतन्मया कृतम् ॥ नाट्यशास्त्र १।१०९ । न तज् ज्ञानं न तच्छिरूपं न सा विद्या न सा कला । न स योगो न तत्कमं नाट्येऽस्मिन् यत्र दृश्यते ॥ वही १।११४ । नाटक भित्र रुचि के व्यक्तियों के लिए समान रूप से मनोरंजन का साधन होता है । नाट्यं भिन्नरुचेजनस्य बहुवाप्येकं समाराधनम् । कालिदास । संस्कृत साहित्य में नाटकों का लेखन बहुत प्राचीनकाल से होता रहा है और इसके सूत्र वेदों में भी प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद के अनेक संवादसूक्तों में नाटक के तत्त्व मिलते हैं । पुरूरवा उवंशी-संवाद, यम यमी, इन्द्र-इन्द्राणी - वृषाकपि, सरमा-पणिस् आदि संवादों में नाट्यकला का यथेष्ट रूप देखा जा सकता है। ऋग्वेद में नाटक से सम्बद्ध अन्य तत्वों का भी रूप दिखाई पड़ता है । उषा के वर्णन में नृत्य का उल्लेख है और ( ६१६ )
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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