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________________ संगीतशास्त्र ] ( ६०७ ) [ संगीतशास्त्र स्थापित किया गया है। प्रारम्भ से ही काव्य और संगीत में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और संगीत का आधार छन्दोबद्ध काव्य ही माना जाता रहा है। सामवेद के द्वारा इस तथ्य की सत्यता सिद्ध हो जाती है । वह संसार का सर्वाधिक प्राचीन संगीत विषयक ग्रंथ माना जाता है । 'सामवेद' में 'सामन्' या गीत ऋग्वेद से लिये गए मन्त्र हैं । 'ऋग्वेद' के 'दशम मण्डल में भी 'सामन' शब्द का प्रयोग हुआ है तथा 'यजुर्वेद' में भी बैराज, बृहत् तथा रथन्तर प्रभृति अनेक प्रकार 'सामनों' का उल्लेख है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के वाद्ययन्त्रों का भी उल्लेख प्राप्त होता है, जैसे दुन्दुभि, कर्करी, क्षोणी, बीणा, बाण आदि । ऋग्वेद ६-४७ २९-३१ । वैदिक साहित्य में संगीतविषयक अनेक पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग प्राप्त होते हैं और स्वरविधान संबंधी पुष्कल सामग्री मिलती है । पूर्वाचिक उत्तराचिक, ग्रामगयगान, आरण्यगेयगान, स्तोव स्तोम, आदि अनेक शब्द तत्कालीन संगीतशास्त्र की समृद्धि के द्योतक हैं। सामवेद के गेय छन्दों में स्वरविधान के साथ गान-विधि का भी निर्देश प्राप्त होता है । शौनक मुनि के ग्रंथ 'चरणव्यूह' में बताया गया है कि सामवेदिक संगीत एक सहस्र सम्प्रदायों में विभक्त था - सामवेदस्य किल सहस्रभेदा भवन्ति ( परिशिष्ट ) । पर सम्प्रति उसके केवल तीन ही सम्प्रदाय रह सके हैं- कोथुम, राणायणीय एवं जैमिनीय । वैदिक युग में तीन स्वर प्रधान थे - उदात्त, अनुदास और स्वरित, तथा इनसे ही कालान्तर में सप्त स्वरों का विकास हुआ । निषाद और गांधार को उदात्त से ऋषभ और धैवत की अनुदास से तथा षड्ज, मध्यम एवं पंचम की स्वरित से उत्पत्ति हुई थी। उदास को तार भी कहा गया है और अनुदास को उच्च, मन्द या खाद कहते हैं । स्वरित को मध्य, समतारक्षकस्वर कहा जाता है। 'ऋक्प्रातिशाख्य' में बताया गया है कि किस प्रकार तार, मन्द एवं मध्य के द्वारा बड्ज आदि सप्त स्वरों का विकास हुआ था । वैदिक संगीत के सात विभागों का उल्लेख प्राप्त होता है - प्रस्तवा, हुंकार उद्गीय, प्रतिहार, उपद्रव, विधान एवं प्रणव । पुराणों तथा रामायण और महाभारत में संगीतशास्त्र के विकसित स्वरूप के निदर्शन प्राप्त होते हैं। इस युग संगीत के विधान, पद्धति, नीति-नियम तथा प्रकारों में पर्याप्त विकास हो चुका था । 'हरिवंशपुराण' में गांधार राग की प्राचीनता विभिन्न रागरागिनियों तथा बाह्य ग्रन्थों का भी परिचय दिया गया है और तत्कालीन अनेक नर्तकियों एवं उनके वाद्ययन्त्रों का भी उल्लेख है । 'मार्कण्डेयपुराण' में सप्तस्वर, पंचविध ग्रामराग, पंचविधगीत, मूच्छंनाओं के इक्यावन प्रकार की तानों, तीन ग्रामों तथा चार पदों के विवरण प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार 'वायुपुराण' में श्री संगीतविषयक अनेक तथ्य उपलब्ध होते हैं। रामायण और महाभारत युग में संगीत विशिष्ट व्यक्तियों या जातियों की वस्तु न रहकर सर्वसाधारण का विषय हो गया था। रावण स्वयं उच्चकोटि का संगीतज्ञ था और उसने संगीतशास्त्र के ऊपर ग्रन्थ-रचना भी की थी । उसके द्वारा रचित 'रावलीयम्' नामक ग्रन्थ आज भी प्रचलित है किन्तु इसका रूप परिवर्तित हो गया है । 'रामायण' में महर्षि वाल्मीकि की संगीतप्रियता सर्वत्र दिखाई पड़ती है। 'महाभारत' के समय में संगीतकला और भी अधिक विकसित हो गयी
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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