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________________ सरस्वतीकण्ठाभरण] (६०६) [संगीतशास्त्र आधारपन्थ- भारतीय दर्शन-(भाग १)-. राधाकृष्णन् (हिन्दी अनुवाद ) २. भारतीयदर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय। सरस्वतीकण्ठामरण यह काव्यशास्त्र का अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसके रचयिता आचार्य भोज या भोजराज हैं (दे० भोज । 'सरस्वतीकण्ठाभरण' मूलतः संग्रह अन्य है जिसमें विभिन्न आचार्यों के विचारों का संग्रह है। एकमात्र 'काव्यादर्श' के ही इसमें २०० श्लोक उपधृत किये गए हैं। इसमें १५०० के लगभग श्लोक पूर्ववर्ती कवियों के उद्धृत किये गए हैं अतः संस्कृत साहित्य की कालानुक्रमणिका के विचार से इसका महत्व बसंदिग्ध है। इसमें कई ऐसे अलंकारों का वर्णन है जिनका अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता । सम्पूर्ण ग्रन्थ पांच परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद में काव्य-प्रयोजन, काम्यलक्षण, काव्यमेद तथा दोष-गुण का विवेचन है। भोज ने दोष के तीन प्रकार मानकर पददोष, वाक्यदोष एवं वाक्यार्थ दोष-प्रत्येक के १६ भेद किये हैं । इस प्रकार भोजकृत दोषों की संख्या ४८ हो जाती है। इन्होंने गुण के भी ४८ प्रकार माने हैं और उन्हें सम्दगुण एवं वाक्य गुण के रूप में विभक्त किया है। द्वितीय परिच्छेद में २४ शब्दालङ्कारों का विवेचन है। वे हैं-जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुंफना, शय्या, पठिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, वाकोवाक्य, प्रहेलिका, गूळ, प्रश्नोत्तर, अध्येय, श्रव्य, प्रेक्ष्य तथा अभिनव । तृतीय परिच्छेद में २४ अर्थालंकार वर्णित है-जाति, विभावना, हेतु, अहेतु, सूक्ष्म, उत्तर, विरोध, संभव, अन्योन्य, परिवृत्ति, निदर्शन ( दृष्टान्त ), भेद ( व्यतिरेक ), समाहित, भ्रान्ति, वित, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और भाव । सरस्वती. कन्ठाभरण के चतुर्थ परिच्छेद में २४ उभयालंकारों का निरूपण है। वे हैं-उपमा, पक, साम्य, संशयोक्ति, अपहुति, समाध्युति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुतस्तुति, तुल्पयोगिता, केश, सहोक्ति, समुच्चय, बाक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष, परिष्कृति, दीपक, क्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक, तथा संसृष्टि । इसके पंचम परिच्छेद में रस, भाव, नायक-नायिकाभेद, नाव्य सन्धियों तथा चार वृत्तियों का निरूपण है। 'सरस्वतीकण्ठाभरण, में कुल ६४३ कारिकाएं हैं। इस पर जगढर एवं रत्नेश्वर की टीकाएं प्राप्त होती हैं। रत्नेश्वर की टीका का नाम 'रलदर्पण' है जिसकी रचना तिरहत नरेश महाराज रामसिंहदेव के आदेशानुसार हुई थी। इनका समय १४ वीं शताब्दी के भासपास है। 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में चित्रालंकार का अत्यन्त विस्तृत विवेचन है जिसमें इसके लगभग ६५ मेदों का उल्लेख है। इसी प्रकार नायिकाभेद एवं शृङ्गाररस के निरूपण में भी अनेक नवीन तथ्य प्रस्तुत, किये गए हैं जो भारतीय काव्यशास्त्र की स्थायी निधि है। सम्प्रति सरस्वतीकण्ठाभरण का हिन्दी अनुवाद मुद्रणाधीन है। आधारअन्ध-सरस्वतीकण्ठाभरण-रत्नेश्वर एवं जगवर टीका सहित । संगीतशाल-भारतीय संगीत अत्यन्त प्राचीन एवं समृद्ध है। वैदिककाल से ही इसके विकास के सूत्र प्रारम्भ हो जाते हैं। देदों में सामवेद मेय' है, अतः संगीत के तत्व इसी में प्राप्त होते हैं। चार वेदों के चार उपवेद माने जाते हैं-आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्य । इनमें गान्धर्व या संगीत शार्स का सम्बन्ध 'सामवेद' के साथ
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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