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________________ आरण्यक] [ आरण्यक आधारग्रन्थ-संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास भाग १-पं० युधिष्ठिर मीमांसक। आरण्यक-आरण्यक (वैदिक वाङ्मय के अंग ) उन ग्रन्थों को कहते हैं, जिन्हें व्यक्ति यज्ञ-यागादि मे निवृत्त होकर अरण्य में रहते हुए पढ़ा करते थे। इन्हें ब्राह्मण ग्रन्थों का [ दे० ब्राह्मग] परिशिष्ट माना जाता है। इनमें ब्राह्मण ग्रन्थों से सर्वथा भिन्न विषयों का प्रतिपादन किया गया है। सायणाचार्य का कथन है कि अरण्य में अध्ययन किये जाने के कारण ये ग्रन्थ आरण्यक कहे जाते थे। अरण्य का शान्त वातावरण इन ग्रन्थों के मनन और चिन्तन के लिए उपयुक्त था। अरण्याध्ययनादेतद् आरण्यकमितीर्यते । अरण्ये तदधीयीतेत्येवं वाक्यं प्रवक्ष्यते ॥ ते० आ० भा० श्लोक ६१ नगर या ग्राम में रहकर इन ग्रन्थों का अध्ययन तथा इनमें प्रतिपादित गूढ़ रहस्यों का ज्ञान संभव नहीं था और न नगर या ग्राम का वातावरण ही इनके अनुकूल था। अतः ऐसे अन्यों के सूक्ष्म आध्यात्मिक तत्वों को जानने के लिए वन का एकान्त वातावरण अधिक उपयोगी था, जहां जाकर लोग गुरुमुख से इनके दार्शनिक विचारों का अध्ययन करते थे। आरण्यक ग्रन्थों का प्रतिपाद्य यज्ञ न होकर यज्ञ-यागों में निहित आध्यात्मिक तथ्यों का मीमांसन था। इनमें यज्ञ का अनुष्ठान न होकर उसके दार्शनिक पक्ष का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राणविद्या का भी महत्त्व दर्शाया गया है। यद्यपि इस विद्या का संकेत संहिताओं में भी है किन्तु इसका अपेक्षित विस्तार आरण्यकों में ही हुआ है । 'ऐतरेय आरण्यक' में इसका सम्यक् अनुशीलन किया गया है। यहां सभी इन्द्रियों से प्राण को श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए तद्विषयक रोचक आख्यान दिये गए हैं। ___'सोऽयमाकाशः प्राणेन बृहत्या विष्टब्धः, तद्यथायमाकाशः प्राणेन बृहत्या विष्टब्धः । एवं सर्वाणिभूतानि आपिपीलिकाभ्यः प्राणेन बृहत्या विष्टब्धानीत्येवं विद्यात् ।। ऐत० आर० २।१०६ इसमें बताया गया है कि जबतक इस शरीर में प्राण रहेगा तनी तक आयु भी रहेगी 'यावद्धयस्मिन् शरीरे प्राणो वसति तावदायुः' कौषीतकि उपनिषद्-१२ । 'ऐतरेय आरण्यक' में प्राण को ही स्रष्टा तथा पिता कहा गया है। प्राण से ही अन्तरिक्ष एवं वायु की सृष्टि हुई है। प्राण पिता है और अन्तरिक्ष तथा वायु उसकी सन्तान हैं। __ प्राणेन सृष्टावन्तरिक्षं च वायुश्च । अन्तरिक्षं वा अनुचरन्ति । अन्तरिक्षमनुशृण्वन्ति । वायुरस्मै पुण्यं गन्धमावहति । एवं एती प्राणपितरं परिचरतोऽन्तरिक्षं च वायुश्च । ___'ऐतरेय आरण्यक' में प्राण का महत्त्व प्रदर्शित करते हुए सभी ऋचाओं, वेदों तथा घोषों को प्राणरूप मान लिया गया है। 'तैत्तिरीय आरण्यक' में काल का पारमार्थिक और व्यावहारिक महत्त्व प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि काल नदी की भांति निरन्तर प्रवाहित होता चला जा रहा है। अखण्ड संवत्सर के रूप में यही काल दृष्टि
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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