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आनन्दवर्द्धन चम्पू]
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[आनन्दवृन्दावन चम्पू
ने उन पर अपनी वृत्ति लिखी है। इस सम्बन्ध में अभी तक कुछ भी निश्चित नहीं हो सका है किन्तु परम्परागत मत भी दोनों की अभिन्नता का पोषक है। आधुनिक युग के म० म० कुप्पुस्वामी शास्त्री, डॉ० संकरन्, डॉ० सत्कारि मुखर्जी, डॉ० कान्तिचन्द्र पाण्डेय, डॉ० कृष्णमूत्ति, पं० बलदेव उपाध्याय एवं डॉ. नगेन्द्र कारिका एवं वृत्ति दोनों का ही प्रणेता आनन्दवर्द्धन को मानते हैं। जब कि डॉ० बूहलर, जाकोबी, कीथ, सुशीलकुमार डे एवं डॉ. काणे प्रभृति विद्वान् कारिकाओं का प्रणेता मूलध्वनिकार को मान कर आनन्दवर्द्धन को वृत्तिकार मानने के पक्ष में अपना अभिमत प्रकट करते हैं । डॉ. काणे 'ध्वन्यालोक' की प्रथम कारिका-'सहृदयमनः प्रीतये' के आधार पर मूल ग्रन्थकृत का नाम 'सहृदय' मानते हैं। इनके अनुसार 'ध्वन्यालोक' की कई हस्तलिखित प्रतियों में इसका नाम 'सहृदयालोक' भी लिखा है। पर अधिकांश विद्वान् 'सहृदय' शब्द को नामवाची न मानकर पाठक या सहृदय का द्योतक स्वीकार करते हैं । अभिनवगुप्त, कुन्तक, महिमभट्ट एवं क्षेमेन्द्र ने आनन्दवर्द्धन को ही ध्वनिकार कहा है
और स्वयं आनन्दवर्धन ने भी अपने को ध्वनि का प्रतिष्ठापक कहा है-इति काव्यार्थविवेको योऽयं चेतश्चमत्कृतिविधायी। सुरिभिरनुसृतसारैरस्मदुपज्ञो न विस्मार्यः ।। ध्वन्यालोक के अन्तिम श्लोक से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है
सत्काव्यतत्त्वविषयं स्फुरितप्रसुप्तकल्पं मनस्सु परिपक्वधियां यदासीत् । तव्याकरोत् सहृदयोदयलाभहेतोरानन्दवर्धन इति प्रथिताभिधानः ॥
इस प्रकार के कथन से कारिका एवं वृत्ति दोनों का रचयिता आनन्दवर्द्धन को ही मानना उपयुक्त है। [ दे० ध्वन्यालोक]
आधार ग्रन्थ-१. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास-डॉ० पा० वा० काणे २. संस्कृत पोइटिक्स-डॉ० एस० के० डे ३. थियरी ऑफ रस एण्ड ध्वनि-डॉ० संकरन् ४. भारतीय साहित्यशास्त्र भाग १-आ० बलदेव उपाध्याय ५. ध्वन्यालोक ( हिन्दी भाष्य ) की भूमिका-डॉ० नगेन्द्र ।
आनन्दवृन्दावन चम्पू-इसके रचयिता का नाम परमानन्द दास था। इन्हें कवि कर्णपूर भी कहा जाता है। ये बंगाल के नदिया जिले के कांचनपल्ली नामक ग्राम में १५२४ ई० में उत्पन्न हुए थे। इसका प्रकाशन वाराणसी से हो चुका है, डॉ० बाके बिहारी कृत हिन्दी अनुवाद के साथ । कवि का कर्णपूर नाम उपाधिपरक था जिसे महाप्रभु चैतन्य ने दिया था। यह संस्कृत के उपलब्ध सभी चम्प-काव्यों में बड़ा है। इसमें कुल २२ स्तबक हैं तथा भगवान् श्रीकृष्ण की कथा प्रारम्भ से किशोरावस्था पर्यन्त वणित है। कवि ने अपनी रचना का आधार 'श्रीमद्भागवत' के दशम स्कन्ध को बनाया है। इसके नायक श्रीकृष्ण हैं तथा नायिका राधिका । इसमें प्रधान रस शृङ्गार है, किन्तु यत्र-तत्र वीर, अद्भुत आदि रसों का भी समावेश है। कृष्ण के मित्र 'कुसुमासव' की कल्पना कर उसके माध्यम से हास्य रस की भी सृष्टि की गयी है । वैदर्भी रीति की प्रधानता होने पर भी अन्य रीतियां भी प्रयुक्त हुई हैं। प्रारम्भ में कृष्ण की वन्दना की गयी है तथा सरस्वती की स्तुति के उपरान्त कवि अपनी विनम्रता प्रदर्शित कर खलों की निन्दा करता है ।