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________________ वेद का समय-निरूपण ] ( ५२७ ) वैदिक देवताओं की प्रतिष्ठा हो चुकी थी । इसके आधार पर वेद का रचना-काल २००० से २५०० ई० पू० तक माना जा सकता है । डॉ० अविनाशचन्द्र दास ने 'ऋग्वेदिक इण्डिया' नामक ग्रन्थ में भौगोलिक तथा भूगर्भ-सम्बन्धी घटनाओं के आधार पर इसकी रचना एवं वैदिक सभ्यता को ईसा से २५ हजार वर्ष पूर्व सिद्ध किया है, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने वैज्ञानिक न मानकर भावुक ऋषियों की कल्पना कहा है । पण्डित दीनानाथ शास्त्री चुटेल ने अपने 'वेदकालनिर्णय' नामक ग्रन्थ में ज्योतिषशास्त्र के आधार पर वेदों का समय आज से तीन लाख वर्ष पूर्व सिद्ध करने का प्रयास किया है। डॉ० विन्टरनित्स ने वैदिक कालगणना के विवेचन का सारांश प्रस्तुत करते हुए जो अपना निर्णय दिया है, वह इस प्रकार है [ वेद का समय निरूपण W 1 १ - नक्षत्र-विज्ञान के आधार पर वैदिक-काल-निर्णय कुछ निश्चित नहीं हो पाता, क्योंकि ऐसे प्रकरणों की व्याख्या के सम्बन्ध ही अभी तक पर्याप्त मतभेद है । सोवैज्ञानिक दृष्टि से ये तिथियां कितनी हो सही हों, काल-निर्धारण के लिए उनका मूल्य तब तक कुछ भी नहीं - जब तक कि उक्त प्रकरणों के सम्बन्ध में विद्वान् एकमत नहीं हो जाते । २ - क्यूनिफार्म अभिलेखों में अथवा बोघाजकोइ के सिक्कों में आये ऐतिहासिक तथ्य अपने आप में इतने अनिश्चित हैं, और वैदिक प्राचीनता का इण्डो-यूरोपियन युग के साथ परस्पर-सम्बन्ध भी एक ऐसी अस्थिर सो युक्ति है - कि जिसके आधार पर विद्वान अद्यावधि नितान्त विभिन्न निष्कर्षो पर पहुंचते रहें हैं। हां, एशियामाइनर तथा पश्चिमी एशिया के साथ भारतीयों के सम्बन्ध की युक्ति, अलबत्ता, वैदिक युग को दूसरी सहस्राब्दी ईसवी पूर्व से बहुत इधर नहीं ला सकती । ३ – वेद और अवेस्ता में वैदिक और लौकिक में ( भाषागत ) परस्पर सादृश्य-विभेद की युक्ति भी हमें किन्हीं निश्चित तथ्यों पर पहुँचाती प्रतीत नहीं होती । ४ – अलबत्ता, भाषा की यही युक्ति हमें सचेत अवश्य कर देती है कि-व्यर्थ ही हम भूगर्भविद्या अथवा हिरण्यगर्भविद्या के झांसे में आकर वेदों को कहीं बीस चालीस हजार साल ईसवी पूर्व तक ले जाने न लग जायें । ५- और अन्त में, जब सभी युक्तियाँ-सभी साक्षियोंव्यर्थ सिद्ध हो जाती हैं, तब वेद की तिथि के सम्बन्ध में एक ही प्रमाण बच रहता है - और वह ( प्रमाण ) है : भारतीय वाङ्मय की ऐतिहासिक परम्परा का स्वतोऽभ्युदय | भारत के ऐतिहासिक पुराणपुरुष पावं, महावीर, बुद्ध-सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय की सत्ता को अपने से पूर्व 'विनिश्चित' स्वीकार करते हैं, अर्थात् वैदिक वाङ्मय के किसी भी अंग को हम ५०० ई० के पू० से इधर ( किसी भी हालत में ) नहीं ला सकते; और सुविधा के लिए यदि १२०० या १५०० ई० पू० को हम वैदिक वाङ्मय का आरम्भ-बिन्दु मान लें, तो शेष साहित्य की विपुलता को हम ७०० वर्षों की छोटी-सी अवधि में फलता-फूलता नहीं देख सकते । सो, इस महान् साहित्यिक युग का श्रीगणेश २५००/२००० ई० पू० में हुआ और अन्त ७५०।५०० ई० पू० मेंऐसा मानने से हम दोनों प्रकार की अतियों से भी बच जाते हैं : इससे न तो वेद इतने प्राचीन हो जाते हैं कि उनमें पौरुषेयता का अंश निपट दुर्लभ हो जाय और न इतने -
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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