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मुरारि-मिष]
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[मृच्छकटिक
है। वे नाटककार के रूप में नितान्त असफल तो हैं ही, कवि के रूप में भी पूर्ण सफल नहीं कहे जा सकते।
मुरारि-मिश्र--मीमांसा-दर्शन के अन्तर्गत [दे० मीमांसा-दर्शन ] मुरारि या मित्र-परम्परा के प्रतिष्ठापक आचार्य मुरारि मित्र हैं। इनका समय १२ शतक माना है। इन्होंने भवनाथ नामक प्रसिद्ध मीमांसक [ 'नयविवेक' नामक ग्रन्थ के रचयिता तथा गुरुमत के अनुयायी] के मत का खण्डन किया है, जिनका समय ११ वीं शताब्दी है । इस आधार पर ये भवनाथ के परवर्ती सिर होते हैं। अत्यन्त खेद को बात है मुरारि मिश्र के सभी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होते और जो प्राप्त भी हुए हैं, वे अधूरे हैं। कुछ वर्ष पूर्व डॉ. उमेश मिश्र को इनकी रचनाओं के कुछ अंश प्राप्त हुए हैं। ये है-त्रिपादकीतिनयम्' एवं 'एकादशाध्यायाधिकरणम्' । दोनों ही ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। प्रथम में जैमिनि के प्रारम्भिक चार सूत्रों की व्याख्या है एवं द्वितीय में जैमिनि के ग्यारहीं अध्याय में विवेचित कुछ अंशों की व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। प्रामाण्यवाद के सम्बन्ध में इन्होंने अपने मौलिक विचार व्यक्त किये हैं। इनके मत का उल्लेख अनेक दार्शनिकों ने किया है जिनमें प्रसिद्ध नव्यनैयायिक गंगेश उपाध्याय तथा उनके पुत्र वर्धमान उपाध्याय हैं।
___ आधारग्रन्थ-१. भारतीय दर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय । २. मीमांसा-दर्शनपं० मण्डन मिश्र।
मृच्छकटिक-महाकवि शुद्रक विरचित संस्कृत का सुप्रसिद्ध यथार्थवादी नाटक । शास्त्रीय दृष्टि से इसे प्रकरण कहा जाता है। इसमें चारुदत्त एवं वसन्तसेना नाम्नी वेश्या का प्रणय-प्रसंग दश अंकों में वर्णित है।
प्रथम अंक में, प्रस्तावना के पश्चात्, चारुदत्त के निकट उसका मित्र मैत्रेय (विदूषक ) अपने अन्य मित्र चूर्णवृद्ध द्वारा दिये गए जातीकुसुम से सुवासित उत्तरीय लेकर आता है । चारुदत्त उसका स्वागत करते हुए उत्तरीय ग्रहण करता है। वह मैत्रेय को रदनिका के साथ मातृ-देवियों को बलि चढ़ाने के लिए जाने को कहता है, पर वह प्रदोष काल में जाने से भयभीत हो जाता है। चारुदत्त उसे ठहरने के लिए कहकर पूषादि कार्य में संलग्न हो जाता है। इसी बीच बसन्तसेना का पीछा करते हुए शकार, विट और चेट पहुंच जाते हैं। शकार की उक्ति से ही वसन्तसेना को ज्ञात होता है कि पास में ही चारुदत्त का घर है। वह अन्धकार में टटोलते हुए चारुदत्त के घर में घुस जाती है। चारुदत्त दीपक लेकर किवाड़ खोलता है और वसन्तसेना शीघ्रता से दीपक बुमाकर भीतर प्रवेश कर जाती है। इधर शकार रदनिका को हो वसन्तसेना समझ कर पकड़ लेता है, पर मैत्रेय डॉट कर रदनिका को छुड़ा लेता है। शकार विवाद करता हुआ मैत्रेय को धमकी देकर चला जाता जाता है । विदूषक एवं रदनिका के भीतर प्रवेश करने पर वसन्तसेना पहचान ली जाती है। वह अपने आभूषणों को चारुदत्त के यहां रख देती है और चारुदत्त एवं मैत्रेय उसे घर पहुंचा देते हैं। इस अंक में यह पता चल जाता है कि वसन्तसेना ने सर्वप्रथम जब चारुदत्त को कामदेवायतोबान में देखा था, तभी से उस पर अनुरक्त हो गयी थी।