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________________ भट्टोत्पल या उत्सल ] ( ३२९) भिटोत्पल या उत्पक लक्ष्मीधर रङ्गोजिभट्ट भट्टोजिदीक्षित कोणभट्ट भानुजि बीरेटेश्वर दीक्षित हरिदीक्षित पण्डितराज जगन्नाथ विरचित 'प्रीडमनोरमाखन' से, विदित होता है कि इनके गुरु शेषकृष्ण थे। भट्टोजिदीक्षित ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। 'अष्टाध्यायी' पर 'शब्दकौस्तुभ' नामक टीका, 'सिद्धान्तकौमुदी', 'प्रौढमनोरमा' 'वेदभाष्यसार' (यह 'ऋग्वेद' के प्रथम अध्याय पर रचित सायणीय भाष्य का सार है) तथा अमर टीका । इनका 'शब्दकौस्तुभ' पाणिनीय व्याकरण की सूत्रपाठानुसारी व्याख्या है। 'सिखान्तकौमुदी' अष्टाध्यायी की प्रयोगक्रमानुसारी व्याख्या है। 'प्रौढ़मनोरमा' इनके द्वारा रचित 'सिद्धान्तकौमुदी' की व्याख्या है। दीक्षित के पौत्र हरिदीक्षित ने 'प्रौढमनोरमा' की दो टीकाएँ लिखी हैं जिन्हें 'बहच्छन्दरत्न' एवं 'लघुशब्दरत्न' कहा जाता है। इनमें 'लघुशब्दरत्न' प्रकाशित है और साम्प्रतिक वैयाकरणों में अधिक लोकप्रिय है । 'शब्दकौस्तुभ' की सात टीकाएँ प्राप्त होती हैं-क. नागेश्वर की 'विषमपदी', ख. वैद्यनाथपायगुण्डे-प्रभा, ग. विद्यानाथ शुक्ल-उद्योत, प. राघवेन्द्राचार्य-प्रभा, अ. कृष्णमित्रभावप्रदीप, च. भास्कर दीक्षित-शब्दकोस्तुभदूषण, ज. जगन्नाथ-शब्दकौस्तुभखण्डन । 'सिद्धान्तकौमुदी' पर अनेक टीकाएं प्राप्त होती हैं। उनका विवरण इस प्रकार हैनीलकण्ठ वाजपेयी-सुखबोधिनी (समय सं० १६००-१६५०), रामानन्द (सं० १६८०१७२०) तत्वदीपिका ( हलन्त स्त्रीलिंग तक प्राप्त), नागेशभट्ट बृहसम्वेन्दुशेखर तथा लघुशन्देन्दुशेखर, रामकृष्ण-रत्नाकर, रंगनाथ यज्वा-पूर्णिमा, वासुदेव बाजपेयीबालमनोरमा (अत्यन्त सरल एवं लोकप्रिय टीका), कृष्णमित्र-रत्नार्णव । 'प्रौढ़मनोरमा' पर पडितराज जगन्नाथ ने 'मनोरमाकुचमदन' नामक खण्डन ग्रन्थ लिखा है। आधारमन्ध-संस्कृत व्याकरणशान का इतिहासभाग १-५० युधिष्ठिर मीमांसक । __ भट्टोत्पल या उत्पल-ये ज्योतिष ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार हैं। इनका महत्व उसी प्रकार है जिस प्रकार कि महिनाप का है। ये वराहमिहिर (ज्योतिषशास्त्र के विश्वविश्रुत लेखक) के सिवहस्त टीकाकार माने जाते हैं। इनका समय ९६३ ई० के भासपास है। इन्होंने वराहमिहिर के सभी ग्रन्थों की टीका लिखी है तथा उनके पुत्र पृथुयशाकृत 'पट्पंचाशिका' की भी टीका प्रस्तुत की है। 'ब्रह्मगुप्त (बसिद्ध ज्योतिषशास्त्री) रचित 'खणखाचक' नामक ग्रन्थ के ऊपर भी भट्टोत्पल मे टीका की रचना की है। इन्होंने सात सौ बार्यायों में प्रश्नमान' नामक एक स्वतन्त्र प्रन्य का भी प्रणयन किया है। इनकी टीकामों में सभी बाचार्यों के बचनों का संकलन है जो ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। 'प्रश्नसान' के अन्त में निम्नोक श्लोक
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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