SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिज्ञान शाकुन्तल] ( २१ ) [अभिज्ञान शाकुन्तल सामंजस्य बना हुआ है। इसकी विविध घटनाएं मूल कथा के साथ सम्बद्ध हैं और उनमें स्वाभाविकता बनी हुई है। इसमें एक भी ऐसा प्रसङ्ग या दृश्य नहीं है जो अकारण या निष्प्रयोजन हो । नाटक के आरम्भिक दृश्य का काव्यात्मक महत्त्व अधिक है । दुष्यन्त का रथ पर आरूढ़ होकर आश्रम मृग का पीछा करते हुए आश्रम में प्रवेश करना सौन्दर्य से पूर्ण है। द्वितीय अङ्क में प्रणय-प्रतिमा शकुन्तला एवं प्रणयी राजा दुष्यन्त के मानसिक उद्वेलन का चित्रण है। प्रथमतः द्वन्द्व का प्रारम्भ दुष्यन्त के ही हृदय में होता है कि ब्राह्मण की कन्या होने के कारण यह क्षत्रिय नृप के लिए 'अपरिग्रह' है, पर उनके अन्तर का मानव शकुन्तला को उपभोग की वस्तु मानता है और अन्ततः सखियों द्वारा उसके ( शकुन्तला ) जन्म का वृत्तान्त जानकर उनका आन्तरिक संघर्ष शान्त हो जाता है। वास्तविक संघर्ष कवि शकुन्तला के जीवन में घटित करता है। "जब नवोत्थित प्रणयावेग उसे एक ओर खींचता है और उसका मुग्ध स्वभाव, तपोवनोचित संस्कार तथा कन्योचित लज्जा दूसरी ओर खींचते हैं।" चौथे अङ्क के विष्कम्भक में प्रातःकाल का वर्णन कर भावी दुःख एवं वियोग की सूचना दी गई है। दुर्वासा के भयङ्कर शाप जैसी महत्त्वपूर्ण घटना का सम्बन्ध इससे है जो कवि के अपूर्व नाट्यकौशल का परिचायक है। शकुन्तला की बिदाई के समय मानव हृदय की करुणा ही मुखरित हो उठी है। यहाँ कवि ने मानव एवं मानवेतर प्राणियों के हृदय में समान रूप से करुणा का भाव व्यजित किया है। करुणा की भावना रानी हंसपारिका के ( पन्चम अङ्क के प्रारम्भ में ) गीत में तोवतर होती दिखाई पड़ती है। च या अङ्क काव्यत्व की दृष्टि से उत्तम है तो पांचवें अङ्क में नाटकीय तत्त्व अधिक सबल है। छठे अङ्क के प्रवेशक में धीवर एवं पुलिस अधिकारियों की बातचीत में लोकजीवन की सुन्दर झांकी मिलती है। "छठा अङ्क पांचवें अङ्क का ही परिणाम है, जो प्रत्यभिज्ञान, अंगूठी की उपलब्धि से प्रारम्भ होता है । उसमें दुष्यन्त के अपनी प्रियतमा के प्रत्याख्यानजनित मानसिक परिताप का प्रगाढ़ अङ्कन है । समुद्रवणिक् की मृत्यु घटना से राजा का आग्रह अपनी प्रियतमा की ओर से हटकर अपने पुत्र के प्रति हो जाता है, और वह भी दर्शनीय है कि पुत्र के अभाव-ज्ञान से ही प्रियतमा का प्रत्यभिज्ञान होता है। यह करुण दृश्य मातलि-विदूषक के संवाद द्वारा अकस्मात् आश्चर्य, क्रोध और विनोद के दृश्य में परिणत हो जाता है । अन्तिम अङ्क का घटनास्थल पृथिवी के उपरिवर्ती लोकों में है। मारीच-आश्रम की अलौकिक पवित्रता और सुन्दरता के बीच चरम नाटकीय अवस्था का शनैः-शनैः उद्घाटन होता है-राजा का अपने पुत्र और पत्नी से मिलन होता है। ऋषि और उसकी पत्नी राजा और उनके कुटुम्ब पर आशीर्वाद की वृष्टि करते हैं। ऐसे पावन और शान्त वातावरण में नाटक समाप्त होता है।" महाकवि कालिदास पृ० १७४ चरित्र-चित्रण-चरित्र-चित्रण की दृष्टि से 'अभिज्ञानशाकुन्तल' उच्चकोटि का नाटक है । कवि ने 'महाभारत' के नीरस एवं अस्वाभाविक चरित्रों को अपनी कल्पना एवं प्रतिभा के द्वारा उदात्त एवं स्वाभाविक बनाया है। इनके चरित्र आदर्श एवं
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy