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कालिदास]
( ११८ )
[ कालिदास
संचारिणी दीपशिखेव रात्री यं यं व्यतीयाय पतिवरा सा।
नरेन्द्र-मार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः ।। इनकी उपमा में स्थानीय रंजन का वैशिष्ट्य दिखाई पड़ता है तथा कवि की सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति प्रकट होती है। कवि उपमेय के लिंग, वचन और विशेषण को उपमान में भी उपन्यस्त कर अपनी अद्भुत चातुरी एवं कलात्मकता का परिचय देता है। कालिदास के उपमा-प्रयोग की यह बहुत बड़ी विशेषता है। कवि के प्रकृति-वर्णन की विशेषता यह है कि प्रकृति-चित्रण के समय वह स्थान एवं समय पर अधिक बल देता है। जिस स्थान की जो विशेशता होती है और जो वस्तु जहाँ उत्पन्न होती है कवि उनका वहीं वर्णन करता है। प्रत्येक पुस्तक में वह इस तथ्य पर सदा ध्यान रखता है। 'रघुवंश' महाकाव्य में बिहार के प्रकृति-चित्रण में ईख एवं धान दोनों खेतों की रक्षा करती हुई ग्रामवधू का अत्यन्त मोहक चित्र उपस्थित किया गया है
इक्षुच्छायानिषादिन्यस्तस्य गोप्तुर्गुणोदयम् ।
आकुमारकथोखातं शालिगोप्यो जगुर्यशः ॥ कालिदास ने नागरिक जीवन की जहाँ समृद्धि एवं विलासिता का चित्र अंकित किया है वहीं तपोनिष्ट साधकों के पवित्र वासस्थान का भी स्वाभाविक चित्र उपस्थित किया है । यह कहना कि कवि का मन केवल विलासी नागरिक जीवन के ही वर्णन में रमता है, वस्तुस्थिति से अपने को दूर रखना है। कवि का मन जितना उज्जयिनी, अलका एवं अयोध्या के वर्णन में रमा है उससे कम उसकी मासक्ति पार्वती की तपनिष्ठा एवं कण्व के आश्रम-वर्णन में नहीं दिखाई पड़ती। ___ कालिदास रसवादी कलाकार हैं। इन्होंने सरस एवं कोमल रसों का ही वर्णन किया है। इसका मूल कारण कवि का प्रधानतः शृङ्गाररस के प्रति आकर्षण होना ही है। शृङ्गार, प्रकृति-वर्णन एवं विलासी नागरिक जीवन को अंकित करने में कालिदास संस्कृत में अकेले हैं, इनका स्थान कोई अन्य ग्रहण नहीं कर सकता। शृङ्गार के दोनों ही पक्षों का सुन्दर वर्णन 'रघुवंश', 'मेघदूत', 'कुमारसंभव' एवं 'शकुन्तला' में पूरे उत्कर्ष पर दिखाई पड़ता है। संयोग के आलम्बन एवं उद्दीपन का-दोनों पक्षों का-सुन्दर चित्र 'कुमारसम्भव' के तृतीय सर्ग में उपलब्ध होता है। वसन्त के मादक प्रभाव को कवि ने चेतन एवं अचेतन दोनों प्रकार के प्राणियों पर समान रूप से दर्शाया है। भौंरा अपनी प्रिया के प्रति प्रेमोन्मत्त होते दिखाया गया है
मधुद्विरेफः कुसुमैकपात्रे पपी प्रियां स्वामनुवर्तमानः।
शृङ्गेण च स्पर्शनिमीलिताक्षी मृगीमकण्डूयत कृष्णसारः ।। ३।३६ अज-विलाप, रति-विलाप एवं यक्ष के अश्रुसिक्त सन्देश-कथन में करुणा का स्रोत उमड़ पड़ता है। रति-विलाप एवं अज-विलाप को आचार्यों ने कालिदास की उत्कृष्ट 'करुणगीति' माना है। इसमें अतीत की प्रणय-क्रीड़ा की मधुर स्मृति के चित्र रह-रह कर पाठकों के हृदय के तार को झंकृत कर देते हैं।
सफल नाटककार होने के कारण कालिदास ने अपने दोनों प्रबन्धकाव्यों में नाटकीय संवादों का अत्यन्त सफलता के साथ नियोजन किया है। दिलीप-सिंह-संवाद, रघु