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________________ हरिश्चन्द्र राजा लोक प्रसिद्ध एक सत्यवादी राजा। पुराणों से लेकर वर्तमान साहित्य तक में महाराज हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा का यशगान हुआ है। पौराणिक वैदिक साहित्य में महाराज हरिश्चन्द्र की अनेक चरित्र कथाएं प्राप्त होती हैं। जैन श्रमणों और साहित्यकारों ने भी महाराज हरिश्चन्द्र के यशस्वी सत्यनिष्ठ जीवन को स्वर्णाक्षरों में अंकित किया है। जैन परम्परा में उपलब्ध महाराज हरिश्चन्द्र का इतिवृत्त निम्नोक्त है हरिश्चन्द्र अयोध्या के राजा थे। वे इक्ष्वाकु कुल के भूषण थे। उनकी रानी का नाम सुतारा और पुत्र का नाम रोहिताश्व था। राजा की सत्य पर अगाध आस्था थी। वे धर्मप्राण पुरुष थे। धर्म उनके तन-मन-प्राण में बसा था। वे जैसा सोचते थे वैसा ही कहते थे और जैसा कहते थे उसे प्राण देकर भी पूरा करते थे। एक बार एक ऋषि राजदरबार में उपस्थित हआ और उसने राजा से रक्षा की प्रार्थना करते हए कहा, महाराज! सरयूतट स्थित ऋषि आश्रम को एक जंगली शूकर ने अपना निशाना बनाया है। ऋषि और ऋषि-संतानें उससे भीत हैं। आप आश्रम की रक्षा कीजिए। राजा ने ऋषि को विश्वस्त करके लौटा दिया और स्वयं अश्व पर आरूढ़ होकर आश्रम में पहुंचे। राजा के पूछने पर ऋषियों ने झाड़ी की ओर इंगित करके कहा, शूकर उधर झाड़ियों में छिप गया है। राजा ने आहट पाते ही बाण छोड़ दिया। वहां जाकर देखा तो वहां उनको एक सगर्भा मृगी का शव मिला। इससे राजा को महान खेद हुआ। ग्लानि में गल गए राजा। इतने में ही ऋषि पुत्री ने यह कहते हुए उधम मचा दिया कि राजा ने उसकी पालिता मृगी को मार दिया है। अजाने में हुए मृगी-वध का यह प्रसंग ही हरिश्चन्द्र के भावी कष्टमय जीवन का आधार बना। ऋषि के शोक और शाप को शान्त करने के लिए महाराज हरिश्चन्द्र ने अपना पूरा साम्राज्य उसे अर्पित कर दिया। इतने से भी ऋषि संतुष्ट नहीं हुआ तो राजा ने गुरु-दक्षिणा के रूप में एक लाख स्वर्ण मुद्राएं अतिरिक्त देने का वचन दिया। ___ दूसरे ही दिन आश्रम के कुलपति ऋषि ने दरबार में पहुंचकर महाराज हरिश्चन्द्र से राजपद प्राप्त कर लिया और गुरु दक्षिणा के रूप में एक लाख स्वर्ण मुद्राएं मांगी। राजा ने राजकोष से स्वर्ण मुद्राएं मंगानी चाही तो ऋषि ने कड़क कर कहा, तुम पूरा राज्य पहले दान में दे चुके हो। इसलिए राजकोष पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। साथ ही उसने यह भी आदेश दिया कि अयोध्या राज्य के किसी गृहस्थ से कर्ज पर लेकर दिया गया धन भी उसे स्वीकार नहीं है। आखिर हरिश्चन्द्र की प्रार्थना पर ऋषि ने उन्हें एक लाख स्वर्ण मुद्राओं की व्यवस्था करने के लिए एक माह का समय दिया। हरिश्चन्द्र अपनी पत्नी सुतारा और पुत्र रोहिताश्व के साथ भटकते-भटकते काशी नगरी में पहुंचे। वहां पर उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्र को एक ब्राह्मण के हाथों बेचा और स्वयं को एक चाण्डाल के हाथों बेचकर ऋषि को एक लाख स्वर्ण मद्राएं प्रदान की। अयोध्या की रानी और राजकमार ब्राह्मण के घर दासी-दास बने तथा स्वयं अयोध्यापति एक चाण्डाल का दास बना। चाण्डाल के आदेश पर हरिश्चन्द्र श्मशान घाट की रक्षा करते और शव दाह करने वालों से आधा कफन कर के रूप में प्राप्त करते। उसी क्रम में दुर्दैव ने एक बार महारानी सुतारा को राक्षसी सिद्ध कर उसके वध का दायित्व हरिश्चन्द्र पर डाला। इतने से ही सत्य के परीक्षक संतुष्ट नहीं हुए। एक बार वन में फूल तोड़ते हुए रोहिताश्व को एक विषधर ने डस लिया और कुमार की मृत्यु हो गई। अकेली सुतारा अपने पुत्र के दाह-कर्म के लिए श्मशान में पहुंची। आधी रात में बिजली की कड़क से हरिश्चन्द्र ने पत्नी और पुत्र को पहचान लिया। उन प्रलय-पलों में भी हरिश्चन्द्र ने अपने सत्याचरण को नहीं छोड़ा और रानी से कर के रूप में आधा कफन मांगा। रानी ने कहा, महाराज ! ... जैन चरित्र कोश ... - 719 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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