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________________ विजय की पुण्डरीकिणी नगरी के महाराज श्रेयांस की रानी सत्यकी की रत्नकुक्षी से हुआ । यौवन में आप राजा बने और तिरासी लाख पूर्व तक राजपद पर रहने के पश्चात् मुनि बने । केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर पद पर अभिषिक्त हुए। आपकी सर्वायु चौरासी लाख पूर्व की है। भरत क्षेत्र में उत्सर्पिणी काल के पन्द्रहवें तीर्थंकर जब विचर रहे होंगे तब सीमंधर स्वामी निर्वाण प्राप्त करेंगे। सुन्दर राजा अंगदेश की राजधानी धारापुर नगर का न्यायप्रिय और चारित्रवान नरेश । उसकी रानी का नाम मदनवल्लभा और पुत्रों के नाम कीर्तिपाल और महीपाल थे । यह धर्मनिष्ठ राजपरिवार सुखपूर्वक जीवनयापन कर रहा था। एक रात्रि में कुलदेवी ने राजा को दर्शन दिए और बताया कि राजपरिवार पर संकट आने वाला है और कृत्कर्म दुष्फल देने वाले हैं। राजा ने पूर्व चेतावनी के लिए कुलदेवी को धन्यवाद दिया। दूसरे दिन राजा ने अपनी रानी और पुत्रों को कुलदेवी द्वारा सूचित राजपरिवार के संकटग्रस्त भविष्य की बात बताई और कहा कि श्रेष्ठ पुरुष वही होते हैं जो संकट आने से पूर्व ही उसका सामना करने को तत्पर हो जाते हैं। राजा ने कहा, हमें अपना नगर छोड़कर अन्यत्र चले जाना चाहिए और उदय में आने वाले दुष्कर्मों के फल का सामना करना चाहिए। रानी और राजकुमारों ने राजा के कहे का समर्थन किया। राजा ने अपनी योजना अपने विश्वस्त मंत्री को बताई और राजसिंहासन का दायित्व मंत्री को प्रदान कर यह राजपरिवार प्रदेश के लिए रवाना हो गया। मंत्री ने राजा की खड़ाऊं राजगद्दी पर आसीन की और निष्ठाभाव पूर्वक राज्य का संचालन करने लगा । सुन्दर राजा अपनी रानी और पुत्रों के साथ सामान्य वेश में यात्रा करते हुए पृथ्वीपुर नगर में पहुंचा। वहां श्रीसार नामक एक श्रेष्ठी ने राजपरिवार को आश्रय प्रदान किया। रानी मदनवल्लभा सेठ के घर में काम करती और बदले में इस परिवार को भोजन और आवास प्राप्त होता था। एक बार सोमदेव नामक एक बनजारा उस नगर में आया। श्रीसार की दुकान पर वह किरयाणे का सामान खरीदने आया तो उसकी दृष्टि मदनवल्लभा पर पड़ गई। बनजारे ने रसोई बनाने के लिए किसी महिला की याचना श्रीसार सेठ से की तो सेठ ने मदनवल्लभा को रसोई बनाने के लिए बनजारे के जहाज पर भेज दिया। रात्रि में बनजारा मदनवल्लभा को साथ लेकर ही आगे के लिए प्रस्थान कर गया । बनजारे ने अपने मन के कलुषित भाव रानी के समक्ष प्रगट किए तो रानी ने परपुरुष के चिंतन मात्र की अपेक्षा मृत्यु वरण को श्रेयस्कर बताकर बनजारे को मौन कर दिया । बनजारे ने विचार किया, आखिर एक न एक दिन यह महिला उसके अनुकूल हो ही जाएगी, इसलिए जोर-जबरदस्ती व्यर्थ है । उधर सुन्दर राजा और दोनों राजकुमार रानी के न लौटने से बड़े चिन्तित हुए। पर वे जानते थे कि कष्ट की काली घटाएं उन्हें लीलने को उत्सुक हैं जिनका उन्हें साहस पूर्वक सामना करना है। कष्ट की उसी कड़ी में सेठ श्रीसार एक दिन कुमारों पर नाराज हो गया और उसने राजा और दोनों कुमारों को अपने घर से निकाल दिया। राजा अपने दोनों पुत्रों के साथ ग्रामान्तर के लिए प्रस्थित हुआ । मार्ग में एक बरसाती नदी पार करते हुए राजा उसमें बह गया। दोनों कुमार किनारे पर खड़े अपने पिता को नदी में बहता देखते रहे । आयुष्य शेष होने से एक काष्ठखण्ड राजा के हाथ लग गया। कई दिन बाद वह एक नगर के किनारे पर आ लगा। वहां एक सज्जन व्यक्ति के घर पर राजा सेवा कार्य करने लगा। सज्जन व्यक्ति ने राजा के भोजन और आवास का समुचित प्रबन्ध कर दिया। पर यहां पर गृहस्वामी की पत्नी राजा के रूप पर आसक्त हो गई और राजा से प्रणय प्रार्थना करने लगी। राजा ने उसे मातृपद देकर चुपके से उस घर का त्याग कर • जैन चरित्र कोश 999 *** 648
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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