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________________ वाला। व्यर्थ और अनावश्यक चिन्तन और कार्यों में वह रुचि रखता था। कल्पनाओं की ऊंची उड़ानें भरता रहता था। सोचा करता-भरत क्षेत्र के छह खण्डों को विजय कर वह चक्रवर्ती बनेगा। एक बार पर्याप्त धन व्यय कर उसने एक तीक्ष्ण तलवार बनवाई। चोरों ने उसकी तलवार चुरा ली और उससे कई लोगों का वध कर दिया। चोर भी नगररक्षकों द्वारा मार गिराए गए। तलवार पर अंकित नाम देखकर समृद्धदत्त को भी बन्दी बना लिया गया। समृद्धदत्त कांप उठा। उसने तलवार के चोरों द्वारा चुरा लिए जाने का पूरा विवरण राजा को सुना दिया। पर फिर भी राजा ने उसे दोषी माना और दण्ड दिया। एक अन्य अवसर पर राज्य के एक शत्रु गुप्तचर ने समृद्धदत्त से विष खरीदकर जल स्रोतों में मिला दिया। विषैले पानी को पीकर कई लोग मर गए। समृद्धदत्त पुनः पकड़ा गया। अनजाने में अपराधी का साथ देने का अपराधी उसे ठहराया गया। राजा ने उसका समस्त धन हरण कर लिया और उसे कठोर दण्ड दिया। ___ इस सब से भी समृद्धदत्त की वृत्तियों का परिष्कार नहीं हुआ। एक बार उसने एक किसान को देखा जो दो बछड़ों को लेकर जा रहा था। समृद्धदत्त ने उस किसान को बछड़ों को संवारने को प्रेरित किया। उसकी प्रेरणा से किसान ने असमय में ही बछड़ों को संवारना चाहा। बछड़े असह्य यातना को सह न सके और मरण-शरण बन गए। वे दोनों मरकर व्यंतर देव बने। अपनी मृत्यु और भयानक यातना का कारण उन्होंने समृद्धदत्त को माना और प्रतिशोध-स्वरूप उसके शरीर में सोलह महारोग उत्पन्न कर दिए। काल तक समृद्धदत्त ने नारकीय जीवन का उपभोग किया। जीवन के संध्यापक्ष में एक मुनि के उपदेश से वह अन्तर्मुखी बना। उसकी वृत्तियां शुद्ध बनीं। साधना से उसका जीवन परिष्कृत बना। संयम पालकर वह देवगति में गया। वहां से च्यवकर साधना द्वारा कर्म-मुक्त बनकर वह सिद्धि प्राप्त करेगा। (क) सरस्वती राजा धनमोद की परम पतिपरायणा और परम बुद्धिमती रानी। राजा और रानी की वृत्तियां भी उनके नामानुरूप ही थीं। धनमोद धन में मुदित रहता था और सरस्वती विद्या-व्यसनी थी। रानी जन्मजात विचक्षण और बुद्धि का निधान थी। वह अपने बुद्धिबल से राज्य की अनेक समस्याओं का चुटकियों में समाधान कर चुकी थी। इस पर भी राजा ने सदैव बुद्धिबल पर धनबल को ही श्रेष्ठ माना था। एक बार राजा और रानी परस्पर प्रेमालाप कर रहे थे। वार्ता-प्रसंग यात्रा करते-करते धन और बुद्धि की तुलना तक पहुंच गया। राजा ने धन को बुद्धि से बड़ा सिद्ध करने की कोशिश की, पर रानी ने बुद्धि को ही धन से बड़ा कहा। प्रेमालाप का स्थान संवाद, और संवाद का स्थान विवाद ने ले लिया। रानी ने राजा को शांत करने की लाख चेष्टाएं की, पर राजा जिद्द पर डट गया कि वह अपने बुद्धिबल से सिद्ध करे कि बुद्धि धन से बड़ी है। आखिर रानी ने राजा की चेतावनी स्वीकार कर ली। राजाज्ञा से रानी साधारण वस्त्रों में महलों को छोड़ कर चल दी। वह एक नगर में पहुंची। वहां का राजा कहानियां सुनने का शौकीन था। उसकी घोषणा थी कि जो उसे ऐसी कहानी सुनाएगा जिसे सुनकर वह ऊब जाएगा, उस कहानी सुनाने वाले को वह दस सहस्र स्वर्णमुद्राएं देगा। सरस्वती पुरुषवेश धारण कर राजदरबार में पहुंची और उसने राजा को ऐसी कहानी सुनानी प्रारंभ की जिसे सुनकर राजा खीझ और ऊब से भर गया। परिणामतः पुरस्कार जीत कर सरस्वती अपने नगर में आ गई। नगर के बाह्य भाग में उसने आधे धन से एक मकान बनवाया और आधे को व्यापार में व्यय कर अपने बुद्धिबल से अपार धन अर्जित किया। इस पर राजा ने कहा, यह तो कोई बुद्धि प्रमाण नहीं है। बुद्धिबल को तभी श्रेष्ठ माना जाएगा जब उससे धन के अतिरिक्त कुछ अन्य अर्जित किया जाए। ... जैन चरित्र कोश ... -- 627 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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