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________________ शय्यंभव का व्यक्तित्व स्थिर हो गया। पर उसके लिए आवश्यक था कि शय्यंभव को प्रतिबोध देकर दीक्षित किया जाए। प्रभव प्रतिबोध देने में समर्थ थे, परन्तु वह तभी संभव था जब शय्यंभव उनके पास आएं। यह दायित्व दो मुनियों ने अपने कन्धों पर लिया। मुनि युगल भिक्षा के लिए शय्यंभव की यज्ञवाट में गए। जैसा कि संभावित था-वहां मुनि युगल का घोर तिरस्कार हुआ। मुनि युगल शान्त स्वर में बोले-"अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं विज्ञायते नहि।" अर्थात् महान खेद का विषय है कि तत्त्व को नहीं जाना जा रहा है। मुनियों की तत्व सम्बन्धी बात ने शय्यंभव को शंकित बना दिया। उसे विश्वास था कि अपरिग्रही मुनि असत्य भाषण नहीं करते। अपनी शंका के साथ शय्यंभव अपने उपाध्याय के पास पहुंचे। उपाध्याय की गर्दन पर तलवार रखकर उन्होंने पूछा, तत्व का स्वरूप क्या है? अध्यापक कांप गया। उसने अपने पूर्व निर्णय को बदलते हुए कहा, अर्हत् धर्म ही यथार्थ तत्व है। शय्यंभव यज्ञ को तिलांजलि देकर यथार्थ तत्व की खोज में निकले और आचार्य प्रभव से उनकी भेंट हुई। आचार्य प्रभव ने उनको यथार्थ तत्व का बोध दिया। शय्यंभव को प्रतिबोध मिल गया और वे अर्हत् धर्म में दीक्षित हो गए। आचार्य प्रभव को एक समर्थ उत्तराधिकारी मिल गया। उन्होंने शय्यंभव को चौदह पूर्वो का विशाल ज्ञान प्रदान किया और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। ___मुनि बनने से पूर्व शय्यंभव विवाहित थे। जब वे मुनि बने तब उनकी पत्नी सगर्भा थी। उसने पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम मनक रखा गया। मनक आठ वर्ष का हुआ तो उसने अपनी मां से अपने पिता का परिचय पूछा। मां ने उसे बता दिया कि उसके पिता शय्यंभव उसके जन्म से पूर्व ही जैन श्रमण बन गए थे और वर्तमान में वे अर्हत् संघ के आचार्य हैं। मां की आज्ञा लेकर मनक पिता के दर्शनों के लिए चला। चम्पा नगरी में अचानक उसे शय्यंभवाचार्य के दर्शन हुए। बालक की जिज्ञासा से शय्यंभव जान गए कि वह उन्हीं का पुत्र है। उन्होंने स्वयं को शय्यंभव का अभिन्न मित्र बताकर मनक को अपने पास रख लिया। तभी सहसा आचार्य श्री की दृष्टि मनक की हस्त रेखाओं पर पड़ी। आचार्य श्री हस्तरेखा विज्ञान के ज्ञाता थे। उन्होंने जाना कि बालक का आयुष्य मात्र छह मास का शेष है। आचार्य श्री ने विशेष उद्बोधन-प्रतिबोधन से बालक को प्रतिबोध दिया और उसे दीक्षित किया। आचार्य श्री जानते थे कि मनक के पास इतना समय नहीं है कि उसे समस्त श्रुतज्ञान पढ़ाया जाए। उन्होंने पूर्वो में से दशवैकालिक सूत्र का निर्वृहण किया जिसमें संक्षेप में साधु जीवन की आचार संहिता का वर्णन है। मनक मुनि को उन्होंने यह सूत्र पढ़ाया और साध्वाचार में प्रवीण बना दिया। छह मास का विशुद्ध संयम पालकर मनक मुनि का स्वर्गवास हो गया। ___कहते हैं कि उस समय शय्यंभवाचार्य के नेत्र पुत्रमोह में आर्द्र हो गए। एक श्रुतकेवली-चतुर्दश पूर्वधर की आंखों में आर्द्रता देख शिष्यमण्डल विशेष जिज्ञासाशील बन गया। उस समय आचार्य श्री ने स्पष्ट किया-मनक मेरा संसारपक्षीय पुत्र था। यह बात मैंने पहले इसलिए नहीं बताई कि आचार्य-पुत्र जानकर अन्य स्थविर उससे सेवा लेने में संकोच करते और वह सेवा-धर्म के लाभ से वंचित रह जाता। आचार्य श्री की दृष्टि-विशालता को देखकर सभी श्रमण आश्चर्य चकित रह गए। __आचार्य शय्यंभव अपने युग के एक महान आचार्य हुए। 28 वर्ष की अवस्था में वे प्रव्रजित हुए और 39 वर्ष की अवस्था में आचार्य पद पर आरूढ़ हुए। 23 वर्ष तक आचार्य पद पर रहकर उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की। 62 वर्ष की अवस्था में तथा वी.नि. 98 में उनका स्वर्गवास हुआ। -दशवै. हारि-वृत्ति / श्री नन्दी सूत्र ...578 ... ... जैन चरित्र कोश...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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