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________________ मथुरा में जैन धर्म का स्वर्णकाल सिद्ध करते हैं। शतानीक कौशाम्बी का राजा । महासती मृगावती उसकी पटरानी थी। वह अपनी रानी के कारण जैनधर्मी बना। महावीर के चरणों पर उसकी अनन्य आस्था थी। उसने अपने जीवन काल में कई युद्ध भी लड़े। जय-पराजय का समान आस्वाद चखा। एक बार उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत ने उस के राज्य पर आक्रमण किया। उस अकस्मात् आक्रमण को वह झेल न सका। भय से वह बीमार हो गया और उसका देहान्त हो गया। महावीर की अनन्य उपासिका जयन्ती उसकी बहन थी तथा उसके इकलौते पुत्र का नाम उदयन था। शत्रुञ्जय पर्वत .. उक्त शब्द का उल्लेख जैन आगमों और आगमेतर साहित्य के कई स्थलों पर हुआ है। वस्तुतः यह शब्द एक ऐसे पवित्र स्थल का वाचक है जहां से अनेक आत्माओं ने मोक्ष को उपलब्ध किया। इसका शाब्दिक अर्थ है-वह पर्वत जहां से साधकों ने आत्मिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। असंख्य साधकों की साधना स्थली होने के कारण ही इस पर्वत का उक्त नाम प्रचलित हुआ है। शत्रुञ्जय पर्वत को जैन परम्परा में तीर्थराज का दर्जा प्राप्त है। यह गुजरात-काठियावाड़ में पालिताणा से दो मील की दूरी पर स्थित है। आगम साहित्य के अनुसार इस पर्वत का इतिहास असंख्य वर्ष पुराना है। भगवान ऋषभदेव के प्रमुख गणधर पुण्डरीक थे। उन्होंने इसी पर्वत से सिद्ध पद प्राप्त किया था। इसलिए इस पर्वत का अपर नाम पुण्डरीक भी है। युधिष्ठिर आदि पांचों पाण्डवों ने भी इसी पर्वत से सिद्ध गति प्राप्त की थी। शत्रुञ्जय पर्वत का जैन परम्परा में वही महत्व है जो वैदिक परम्परा में हरिद्वार, प्रयागराज अथवा किसी भी प्रमुख तीर्थ का है। इस पर्वत पर लगभग 4000 छोटे-बड़े जैन मंदिर हैं। जैन धर्म से सम्बन्धित इतने अधिक मन्दिर अन्यत्र नहीं हैं। अधिकांश मंदिर अत्यन्त भव्य और स्थापत्य तथा चित्रकला के अद्भुत उदाहरण हैं। सोलंकी राजाओं के शासनकाल में शत्रुजय नामक तीर्थस्थल का विशेष उत्कर्ष हुआ। सोलंकी नरेशों में प्रमुख महाराज कुमारपाल ने इस दिशा में विशेष श्रम किया। उसने प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा कई नवीन जिनालयों का निर्माण भी कराया। शत्रुघ्न अयोध्या नरेश दशरथ का पुत्र और सुप्रभा का अंगज । (देखिए-राम-दशरथ) शय्यंभव (आचार्य) आचार्य शय्यंभव तीर्थंकर महावीर के धर्मसंघ के चतुर्थ पट्टधर आचार्य थे। वे आचार्य प्रभव के शिष्य थे और चतुर्दश पूर्वधर थे। आचार्य शय्यंभव का जन्म वी.नि. 26 में राजगृह नगरी के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका गोत्र वत्स था। वे वेद और शास्त्रों के पारगामी विद्वान बने। यज्ञों में उनकी गहरी आस्था थी। निर्ग्रन्थ धर्म के वे प्रबल विरोधी थे। उस समय के वैदिक समाज में उनका बहुत ऊंचा स्थान था। ____ आचार्य प्रभव जीवन के सन्ध्या काल में थे। उत्तराधिकार प्रदान का एक बड़ा दायित्व उनके समक्ष था। ऐसे समर्थ हाथों में वे संघ का दायित्व देना चाहते थे जो संघोन्नति कर सके। उनके दृष्टिपथ पर ... जैन चरित्र कोश .. -- 577 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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