SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के श्रीसम्पन्न श्रेष्ठी धन की रूपवती पुत्री रुक्मिणी आर्य वज्र के रूप और गुणों पर मन्त्रमुग्ध हो गई। उसने अपने पिता से कहा कि वह आर्य वज्र से पाणिग्रहण करेगी अन्यथा अग्नि में जलकर आत्महत्या कर लेगी। लक्षकोटि मुद्राओं और अपनी पुत्री के साथ श्रेष्ठी आर्य वज्र के पास पहुंचा। उसने आर्य वज्र से प्रार्थना की कि वे प्रस्तुत धन के साथ उसकी पुत्री को स्वीकार करें । आर्य वज्र ने भोगों को भुजंग की उपमा देते हुए उपदेश की ऐसी धारा प्रवाहित की जिसमें रुक्मिणी का ममत्व वैराग्य में रूपायित हो गया । रुक्मिणी ने प्रव्रजित होकर आत्म-कल्याण किया । आर्य वज्र के समय में दो बार भयंकर दुष्काल पड़ा। प्रथम बार के दुष्काल में आर्य वज्र संघ सहित आकाश मार्ग से महापुरी नगरी में चले गए। वहां सुकाल था । दुष्काल वेला में चतुर्विध संघ वहां पर सुख पूर्वक रहा। द्वितीय दुष्काल तब पड़ा जब आर्य वज्र जीवन के संध्याकाल में थे। शिष्यों की धृति की परीक्षा के लिए उन्होंने लब्धियुक्त आहार ग्रहण करने के लिए प्रस्ताव रखा। परन्तु शिष्य सुदृढ़ आचार के पालने वाले थे । शिष्यों ने स्पष्ट किया, भगवन् ! हमें अनशन पूर्वक प्राणोत्सर्ग का मार्ग सहर्ष स्वीकार है पर आधाकर्मी आहार स्वीकार नहीं है । शिष्यों के इस संकल्प से आर्य वज्र सन्तुष्ट हुए । आखिर रथावर्त्त पर्वत पर जाकर आर्य वज्र ने पांच सौ शिष्यों के साथ अनशन धारण कर लिया। समाधि पूर्वक देहोत्सर्ग करके वे स्वर्गगामी हुए । वी. नि. 584 में आर्य वज्र स्वामी ने शरीर का परित्याग किया। आर्य वज्र अंतिम दश पूर्वधर, अनेक विद्याओं और लब्धियों के धारक तथा जैन शासन के महान ज्योतिपुरुष तथा युग प्रधान आचार्य थे । वत्सराज - नन्दी सूत्र स्थविरावली / कल्प सूत्र स्थविरावली / परिशिष्ट पर्व, सर्ग 12 / प्रभावक चरित्र क्षितिप्रतिष्ठितपुर नगर के राजा वीरसेन का पुत्र, एक सच्चरित्र, सत्यनिष्ठ, नीतिज्ञ और शूरवीर राजकुमार । वत्सराज का एक सहोदर था देवराज, जो बाल्यकाल से ही कुटिल और ईर्ष्या का पुञ्ज था। देवराज के दुष्ट स्वभाव से परिचित महाराज वीरसेन ने प्रचलित परम्परा को तोड़कर अपने छोटे पुत्र वत्सराज को युवराज पद पर अधिष्ठित कर दिया। इससे देवराज तिलमिला उठा। उसने षडयंत्र रच कर सेनापति और मंत्रियों को अपने पक्ष में कर लिया। एक बार संक्षिप्त सी रुग्णता के पश्चात् महाराज वीरसेन का निधन हो गया । देवराज को अवसर मिल गया। वह राजगद्दी पर बैठ गया और उसने वत्सराज को देशनिर्वासन का दण्ड दे दिया । माता और मौसी भी वत्सराज के साथ ही क्षितिप्रतिष्ठितपुर नगर से निकल गई। वे तीनों प्राणी उज्जयिनी नगरी पहुंचे और एक श्रेष्ठी के घर सेवावृत्ति पा गए । उज्जयिनी में रहते हुए ही वत्सराज का भाग्य चमका। वह वहां के राजा का प्रिय पात्र बन गया। उसने देश - विदेशों में भ्रमण कर अनेक साहसिक कार्य किए। अनेकों के कष्ट हरण किए। उसने जो भी कार्य हाथ में लिया सफलता पूर्वक उसे पूरा भी किया। उसके यश में प्रभूत वृद्धि हुई । सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए उसने अनेक देशों का राज्य पाया और कई राजकुमारियों से पाणिग्रहण किया। अंत में प्रजा की प्रार्थना पर वह क्षितिप्रतिष्ठितपुर लौटा और वहां सुशासन की स्थापना की । न्याय, नीति और सत्यनिष्ठा से उसने सुदीर्घकाल तक प्रजा का पालन किया । कालान्तर में अपने पुत्र को राजपद देकर उसने प्रव्रज्या धारण की और सद्गति प्राप्त की 1 - शान्तिनाथ चरित्र के आधार पर ••• जैन चरित्र कोश *** 529
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy