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________________ अपरिग्रह की पुनः प्राण प्रतिष्ठा की। इससे परिग्रही और सुविधाभोगी यतियों की गद्दियां हिल गईं। उन्होंने लोकाशाह का तीव्र विरोध किया और उसे जिनमत विरोधी कहकर उसकी निन्दा की । परन्तु धर्मप्राण लोकाशाह अपनी निंदा की परवाह किए बिना अपने मिशन को आगे और आगे बढ़ाया। लोंकाशाह के जीवन काल में ही उनकी क्रियोद्धार रूपी धर्मक्रान्ति सुदूर अंचलों में फैल गई और हजारों श्रावक उससे जुड़ गए। लोकाशाह ने आगमों के प्रमाण प्रस्तुत कर मूर्त्तिपूजा का निषेध किया, और सम्पूर्ण अपरिग्रह और अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा की । वर्तमान स्थानकवासी परम्परा का स्वरूप लोंकाशाह से ही प्रचलित हुआ । इस परम्परा में आचार्य जीवराज जी, आचार्य लवजी ऋषि, आचार्य धर्मदासजी, आचार्य धर्मसिंह जी, आचार्य भूधर जी, आचार्य अमरसिंह जी और मुनि मायाराम जी जैसे संयम प्राण पुरुष हुए। आज से लगभग साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व हुए धर्मवीर लोंकाशाह शुद्ध धर्म के अन्वेषक, प्रचारक और उसके लिए आजीवन संघर्षकर्त्ता के रूप में सदैव अर्चित- वन्दित रहेंगे । लोहित्य (आचार्य) नन्दी स्थविरावली में आर्य लोहित्य की स्तुति इस प्रकार हुई हैसुमुणिय - णिच्चाणिच्वं, सुमुणिय- सुत्तत्य-धारयं वंदे । तत्थं लोहिच्चणामाणं ।। सब्मावुब्भावणया, अर्थात् लोहित्याचार्य नित्य - अनित्य रूप से वस्तुतत्व के ज्ञाता थे, सूत्रार्थ को धारण करने वाले थे और सर्व पदार्थों के यथावस्थित प्रकाशन में कुशल थे । लोहित्याचार्य का समय वी. नि. की नवमी शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध संभावित - नन्दी सूत्र स्थविरावली है । ••• जैन चरित्र कोश *** 523
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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