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________________ बखान किया और धर्म की निन्दा करते हुए कहा कि धर्म के कारण ही तुम राजकुमार से दरिद्र बन गए । ललितांग ने उसके पक्ष को निरस्त किया और प्राप्त स्थिति को पूर्व कर्म का फल बताते हुए धर्म की महत्ता का गुणगान किया। पारस्परिक संवाद बढ़ते-बढ़ते विवाद में बदल गया। दोनों के मध्य यह तय हुआ कि वे पंचों से निर्णय कराएंगे और जिसके पक्ष को समर्थन मिलेगा वह पराजित पक्ष से यथेच्छ वस्तु मांगने का अधिकारी होगा। पास ही गांव था। पंचों के समक्ष बात प्रस्तुत की गई। पंचों ने निर्णय लिया, धार्मिकों को दुखी और पापियों को सुखी ही सर्वत्र देखा जाता है । इसी से स्वयंसिद्ध है कि अधर्म ही महिमामय है । दुर्बद्धसज्जन विजयी हुआ और उसने ललितांग की आंखें मांग लीं । ललितांग ने वचन बद्धता के कारण अपनी आंखें निकाल कर सज्जन को दे दीं। अचक्षु राजकुमार को असहाय दशा में जंगल में छोड़कर और उसकी सभी कीमती वस्तुएं और आभूषण लेकर सज्जन चम्पत हो गया । स्वकृत कर्मफल मानकर ललितांग जंगल में भटकने लगा। वह एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहा था तो उसने एक पक्षी युगल का संवाद सुना। संवाद था - चम्पानरेश की इकलौती पुत्री पुष्पवती नेत्र ज्योति खो बैठी है। जो कोई उसे नेत्र ज्योति लौटाएगा राजा उसे आधा राज्य देगा और उसी से अपनी पुत्री का विवाह भी करेगा। पक्षी - युगल के संवाद से यह भी स्पष्ट हो गया कि उसी वृक्ष से लिपटी बेल को पीस कर अंजनवत् आंखों में डालने से नेत्रों में रोशनी प्रकट हो जाती है। तांग के लिए पक्षी युगल का संवाद सुखमय जीवन का आधार बन गया। उसने पहले स्वयं नेत्र ज्योति प्राप्त की और बाद में राजकुमारी को नेत्र ज्योति देकर उसे पत्नी बनाया तथा आधा राज्य भी प्राप्त किया । उधर सज्जन राजकुमार ललितांग के वस्त्राभूषण चुराकर जैसे ही आगे बढ़ा तो उसे दस्युओं ने लूट लिया और घायल करके छोड़ दिया। भिखारियों का जीवन जीते हुए सज्जन एक बार चम्पानगरी में आया तो ललितांग ने उसे पहचान कर और उसकी दुष्टता को क्षमा कर उसे पुनः अपना मित्र बना लिया और मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया। कहावत है कि दुर्जन सब छोड़कर भी अपनी दुर्जनता को नहीं छोड़ता है। यहां पर सज्जन ने जितशत्रु राजा के कान भर दिए कि ललितांग तो दासी - पुत्र है। इससे जितशत्रु को बड़ी आत्मग्लानि हुई कि उसने अपनी पुत्री का विवाह निम्न कुल में कर के महान भूल की। उसने ललितांग की हत्या के लिए एक गुप्त सैनिक तैनात कर दिया । ललितांग को राजा ने रात्रि के समय उस मार्ग से अपने पास बुलाया जिस पर उक्त सैनिक तैनात किया गया था । कारणवश ललितांग ने सज्जन को राजा के पास भेज दिया। सैनिक ने एक ही प्रहार से सज्जन का वध कर दिया। आखिर राजा जितशत्रु के बुद्धिशाली मंत्री की युक्ति से ललितांग के कुल-गोत्र का पता लगाया गया । तांगको राजकुमार और क्षत्रिय कुलोत्पन्न जानकर जितशत्रु अतीव प्रसन्न हुआ और प्रायश्चित्त स्वरूप अपना पूरा साम्राज्य ललितांग को अर्पित कर प्रव्रजित बन गया । बाद में ललितांग अपने पिता-माता से मिला । पुत्र को पाकर पिता गद्गद बन गया और उसे राज्य सौंपकर वह भी प्रव्रजित बनकर आत्मसाधना में तल्लीन बन गया । ललितांग कुमार ने सुदीर्घ काल तक सुशासन किया और अंतिम अवस्था में आत्मसाधना के लिए प्रव्रज्या धारण की और स्वर्ग पद प्राप्त किया। - पार्श्वनाथ चरित्र - 1 ••• जैन चरित्र कोश •• 517 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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