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________________ ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। वह तप और संयम में आत्मरमण करती हुई विचरने लगी। __कालांतर में रूपा आर्या का मन संयम के प्रति शिथिल हो गया और शरीर-शृंगार के प्रति वह रुचिशील बन गई। आर्या पुष्पचूला द्वारा उसे पुनः पुनः सावधान किया गया पर प्रमाद के प्रति वह अजागरूक ही बनी रही। फलतः संघीय मर्यादाओं के अनुरूप उसे संघ से पृथक् कर दिया गया। रूपा आर्या स्वतंत्र विचरण कर संयम में दोषों का आसेवन करती रही। अंतिम समय आलोचना किए बना ही कालधर्म को प्राप्त कर वह भवनपति देवों में भूतानंद नामक इंद्र की पट्टमहिषी बनी। काली देवी के समान रूपा देवी ने भी प्रभु के समवसरण स्थल में नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। गणधर गौतम स्वामी के प्रश्न पर भगवान महावीर ने रूपा देवी के जीवन पर आद्योपांत प्रकाश डाला और स्पष्ट किया कि वह देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगी और वहां चारित्र धर्म का निरतिचार पालन कर मोक्ष प्राप्त करेगी। __ -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि.श्रु., चतुर्थ वर्ग, अध्ययन 1 रूपीराज श्रावस्ती नगरी का राजा, प्रभु मल्लि के पूर्वभव का मित्र। एक बार जब वह अपनी पुत्री के मज्जनक महोत्सव पर मंत्रमुग्ध बन रहा था तो वर्षधर नामक उसके अंतःपुर रक्षक ने यह कहकर उसकी चिंतन-धारा को परिवर्तित कर दिया कि मल्लि कुमारी के मज्जनक महोत्सव के समक्ष तुम्हारा यह महोत्सव कहीं नहीं ठहरता है। मल्ली के नाम श्रवण मात्र से ही रूपीराज के हृदय में मल्लि के प्रति अनुराग उमड़ अया। उसने अपना एक दूत महाराज कुंभ के पास भेजा और मल्लि से विवाह का प्रस्ताव रखा। महाराज कुंभ के अस्वीकार करने पर युद्ध के बादल तक मंडराए, अंततः मल्लि की युक्ति से रूपीराज प्रतिबुद्ध बन मोक्ष में गया। दिखें-मल्लिनाथ तीर्थंकर) (क) रेणुका नेमिककोष्ठक नगर के राजा जितशत्रु की शताधिक पुत्रियों में से एक। बाल्यावस्था में ही वह फल के प्रलोभन में आकर ऋषि जमदग्नि के साथ वन में चली गई थी। जब वह युवा हुई तो ऋषि ने उससे विवाह रचाया। उसी से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम परशुराम रखा गया। अनुचित सम्बन्धों के कारण कुपित । हो परशुराम ने ही अपनी माता का वध कर दिया था। (देखिए-सुभूम एवं परशुराम) (ख) रेणुका तेरहवें विहरमान तीर्थंकर श्री चन्द्रबाहु स्वामी की जननी। (देखिए-चन्द्रबाहु स्वामी) (क) रेवती श्रावस्ती नगरी की रहने वाली दृढ़धर्मिणी श्राविका। जिनवचनों पर उसकी सुदृढ़ आस्था थी। उसका सम्यक्त्व सुनिर्मल था। किसी समय मनोवेग नामक विधाधर दक्षिण-मथुरा में विराजित आचार्य मुनिगुप्ति के दर्शनों के लिए गया। वहां से उसे श्रावस्ती जाना था। उसने आचार्य देव से कहा, भगवन् ! मैं श्रावस्ती नगरी जा रहा हूँ, वहां किसी के लिए कोई संदेश है तो फरमाएं। आचार्य श्री ने फरमाया, श्रास्वती में रेवती नामक एक श्राविका रहती है, उसे धर्मसंदेश कह देना। वह दृढ़धर्मिणी श्राविका है। विधाधर श्रावस्ती नगरी पहुंचा। उसने विचार किया, जिस रेवती के लिए आचार्य श्री ने धर्मसंदेश प्रेषित किया है और उसे दृढ़धर्मिणी कहा है उसकी परीक्षा लेनी चाहिए। विद्याधर रूपपरावर्तिनी आदि अनेक ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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